हर साल आठ सितंबर हमें याद दिलाता है, हम अनपढ़ हैं। लिख लोढ़ा पढ़ पत्थर हैं। भले, यह दिन साक्षरता को बढ़ावा देने, अनपढ़ता को कम करने और शिक्षा के महत्व को जागरूक करने का मंच जरूर बनता है, मगर भूख से लड़ने वाले, राशन के कतरों में दिन गुजारने वाले, ठेला-रिक्शा में पसीना बहाने वाले यहां तक कि पढ़ा-लिखा वर्ग भी क्या आज साक्षर कहलाने की स्थिति में है?
यह समझना होगा। सिर्फ अंगूठा के बदले लड़खड़ाते हाथों से अपना नाम लिख लेना क्या साक्षरता का पैमाना है। या होना चाहिए। तब तो इस आधुनिक बायोलाजिकल मेजरमेंट के दौर में हर कोई साक्षर है। फिर, आज के दिन उसका फीसद निकालने की नौबत क्यों आन पड़ी? सोचना होगा।
हमारे पास डिग्री है, लेकिन, एक आवेदन क्या एक शब्द का सही आलेख उसकी शुद्धता को हम गढ़ नहीं सकते। उसे कागज पर उतार नहीं सकते। यह दीगर है, हम पत्रकार कहलाते हैं।
पत्रकार हैं कितना, होना कितना चाहिए, यह हमें नहीं मालूम। शब्दों की बाजीगरी तो दूर, एक विज्ञप्ति को सही से शुद्ध करने की ताकत हममें नहीं है। मगर हम पत्रकार हैं। क्या ऐसे पत्रकारों को आप साक्षर पत्रकार कहेंगे या वो हैं।
कितना अजीब है, कितनी जरूरत है। इसे महसूस करने की कोशिश भी शायद एक पत्रकार शुद्ध मन से कर ले, तो मुमकिन है, समाज को शुद्धता के आवरण में ढ़का जा सके।
प्रत्येक समाज की प्रगति और उन्नति महत्वपूर्ण स्तंभ शिक्षा, शिक्षित और साक्षर व्यक्ति के समाजिक साकारात्मक बदलाव से ही संभव है। उन्नति की दिशा में अग्रसर एक पत्रकार आज विश्व साक्षरता दिवस पर साक्षर फीसद की गिनती तो कर रहा, मगर, खुद कितना साक्षर है, इसका उद्देश्य साक्षरता को प्रोत्साहित करने और शिक्षित होने के महत्व को जागरूक करने में वह विमर्श की स्थिति में आज नहीं है।
साक्षरता का मतलब सिर्फ अक्षरों की पहचान नहीं है। यह व्यक्ति, उसके अधिकार और कर्तव्यों की भी जानकारी प्रदान करता उसे सर्वश्रेष्ठ की श्रेणी में ला खड़ा करता है। साक्षरता के बिना व्यक्ति न केवल अपने अधिकारों की अवगति नहीं कर पाता, बल्कि समाज के उन्नति में भी योगदान नहीं कर सकता।
निरक्षरता अभिशाप है। इसे खत्म करने के लिए इरान के तेहरान में विश्व सम्मेलन के दौरान वर्ष 1965 में 8 से 19 सितंबर तक अंतरराष्ट्रीय स्तर पर शिक्षा कार्यक्रम पर चर्चा करने के लिए पहली बार बैठक की गई थी।
यूनेस्को ने नवंबर 1965 में अपने 14वें सत्र में आठ सितंबर को अंतरराष्ट्रीय साक्षरता दिवस घोषित किया था। मकसद यही था, निरक्षरता समाप्त करा। जन जागरूकता को बढ़ाना। प्रौढ़ शिक्षा कार्यक्रमों के पक्ष में वातावरण तैयार करना। ताकि, परिवार, समाज और देश के लिए हर एक व्यक्ति अपनी जिम्मेदारी को समझे, उसके लिए तत्पर दिखे। आगे आए।
दुनियाभर में आज भी निरक्षरों की भरमार है। व्यक्तिगत, सामुदायिक और सामाजिक स्तर पर साक्षरता के मायने हाशिए पर हैं। बच्चों, व्यस्कों, महिलाओं और वृद्धों को साक्षर बनाने की श्रेणी में ना तो इंडिया आगे आ रहा है। ना ही भारत इसे अपने जिम्मे ले रहा है।
सनातन धर्म की तरह निरक्षरता सनातनी परंपरा में यूं ही बाबस्त है मानो, एक पत्रकार कॉपी पेस्ट कर रहा हो। और, उस कॉपी पेस्ट में उसे यह भी देखने की जरूरत, फुर्सत या समझ नहीं है कि उस विज्ञप्ति की लिखावट कैसी है, शुद्धता का पैमाना कितना फीसद है। उसे किस स्तर पर मजबूत, स्वस्थ लिखा, तैयार किया जा सकता है।
मगर, उसे पढ़ने वाले, समझने वाले भी इतिश्री समझते उसे आद्योपांत कठंस्थ कर लेते हैं, उसका संधि विच्छेद तक नहीं करते। व्याकरण, पत्रकारिता में प्रयुक्त भाषा के स्वरूप, उसके गठन, अवयवों, प्रकारों, उनके पारस्परिक संबंधों, रचना विधान और रूप परिवर्तन का विवेचन ही समझने, सुधारने की कतई कोई जरूरत समझते, या बताते, मिलते-दिखते हैं।
वर्ण विचार, शब्द विचार, वाक्य विचार पर आज कतई कोई विचार होता ही नहीं दिखता।ह्रस्व संधि,अलंकरोति इति अलंकार: इसे सीखने की प्रवृत्ति ही पत्रकारों में निस्वार्थ पड़ा है।
अलंकृत करने वाला व्यक्तित्व पत्रकारों में गुमनाम नौबत के साथ सामने है। जहां, अलंकार से कोई जुड़ना उसकी जरूरत को समझने को ही कतई कोई तैयार है। भारतीय पत्रकारिता में अनुप्रास, उपमा, रूपक, अनन्वय, यमक, श्लेष, उत्प्रेक्षा, संदेह, अतिशयोक्ति, वक्रोत्ति से सरोकार की पीछे छूट चुका है। ऐसे में, पत्रकारिता का वर्तमान अथाह में है। भविष्य चिंतित, संशय में है।
आज संयुक्त राष्ट्र के आंकड़ों पर गौर करें, दुनियाभर में फिलहाल करीब चार अरब लोग साक्षर हैं। आज भी विश्वभर में करीब एक अरब लोग ऐसे हैं, जो पढ़ना-लिखना नहीं जानते। तमाम प्रयासों के बावजूद दुनियाभर में 77 करोड़ से भी अधिक युवा भी साक्षरता की कमी से प्रभावित हैं। प्रत्येक पांच में एक युवा आज भी साक्षर नहीं है। इनमें से दो तिहाई महिलाएं हैं। आंकड़े बताते हैं, 6-7 करोड़ बच्चे आज भी ऐसे हैं, जो कभी विद्यालयों का मुंह नहीं देखा। स्कूली ड्रेस नहीं पहना।
दरभंगा की बात करें तो जिले में 60.05 फीसद साक्षरता है। यानि, करीब 40 फीसद आज भी अंगूठा छाप। वह भी तब जब सरकारी स्तर पर साक्षरता अभियान सामने है। मध्याह्न भोजन की महक है। मुफ्त गणवेश और पाठ्य पुस्तक योजना है, यह सब इतर। ऐसे में कई सवाल हैं।
सिर्फ अ-आ-इ-ई ही ज्ञान और साक्षर होने का पैमाना है। मतलब, नाम, पता लिख लिया, हो गए साक्षर। यही कार्य तो आज पत्रकार भी कर रहे हैं। कॉपी पेस्ट, हिंदी शब्दों की सही से बिना पहचान के, शुद्ध उच्चारण के बिना हाथ में लोगो और माइक…यहां मैं किसी पत्रकार की कमियां उजागर करने नहीं बैठा, सिर्फ साक्षर होना और कहलाना…सिर्फ इसी संदर्भ में विमर्श भर कर रहा हूं। ऐसा नहीं कि गलती लिखते वक्त नहीं होती, लेकिन एक गलती करना, हो जाना और नासमझी में फर्क को समझना होगा।
अंतरराष्ट्रीय साक्षरता दिवस के लिए प्रतिवर्ष एक विशेष थीम चुनी जाती है। इस वर्ष अंतरराष्ट्रीय साक्षरता दिवस की थीम है, संक्रमण काल में दुनिया के लिए साक्षरता को बढ़ावा देना।
सही है, आज पत्रकारिता भी संक्रमित, अतिक्रमित, संक्रमण से ग्रसित, दिव्यांगता की श्रेणी में खड़ा है। जहां, टिकाऊ पत्रकारिता सामाजिक नींव के निर्माण में खुद को पिछड़ता महसूस कर रहा है। टीबी, कॉलेरा, एचआईवी, मलेरिया जैसी फैलने वाली बीमारियों की तरह उगते पत्रकारों की फौज में उस पत्रकारिता की श्रेणी को आज बचाने की जरूरत है, जो सही मायने में मिशन है।
आज जो, पत्रकारिता के महासंघ हैं। पत्रकारों के हित में आगे दिख रहे हैं। ऐसे संघ-संगठनों का अपना संविधान है। उसकी सदस्यता है। उसका संपूर्ण बॉयोलॉज है। उन पत्रकारिता संगठनों को यह विशेष रूप से ध्यान देने के लिए विभिन्न माध्यमों से इस विकृत होती निरक्षर पत्रकारिता को जीवित रखने की जवाबदेही है, ताकि इस स्तरहीन, हताश पत्रकारिता का कल… महाविनाश एक भयंकर महामारी के रूप में सामने ध्यान केंद्रित करता ना दिखे।
2017 में डिजिटल दुनिया में साक्षरता पर विमर्श किया जा रहा है। कमोबेश, आज हर पत्रकारिता का मंच डिजिटल हो चुका है। ऐसे में, लिटरेसी फॉर ए ह्यूमन-सेंट्रड रिकवरी, नैरोइंग द डिजिटल डिवाइड के मूल केंद्र में पत्रकारिता को भी रखने की जरूरत है। मकसद यही हो, ट्रांसफॉर्मिंग लिटरेसी लर्निंग स्पेसेस में पत्रकारिता को स्थान मिले। वह एक सामुच्य लक्ष्य आधारित परिभाषा में गढ़-संवरकर अपने सर्वोच्च स्थान पर विराजित मिले। वहीं रहे।
आंकड़े देखें, दुनिया में 127 देशों में से 101 देश ऐसे हैं, जो पूर्ण साक्षरता हासिल करने के लक्ष्य से अभी दूर हैं। चिंता यह, इसमें अपना इंडिया भी है भारत भी इसमें शामिल है।
एक चराग़ और एक किताब और एक उम्मीद असासा
उस के बाद तो जो कुछ है वो सब अफ़्साना है
पढ़ना-लिखना सीखो…ए-मेरे दरभंगावासियों, Manoranjan Thakur के साथ