ललित- कर्पूरी स्टेडियम से बांस-बल्ले उखड़ रहे हैं। सांसें, पनाह मांग रही। ख्वाहिशें, दरकिनार पड़ी हैं। जो उम्मीद की लंबी-चौड़ी फेहरिस्त थी, कागजों के अक्षर पर उतरकर कल तलक संभावनाएं तलाश रही थीं, आज, उसी मैदान में रिसती, उखड़ती, उस कोने में दबी, लाचार बनी है जहां से, अभी-अभी देश के गृहमंत्री अमित शाह का प्रवास खत्म हुआ है।
मिथिला का बाहुल्य इलाका, उसका सामुच्य वहीं, उसी मैदान में खड़ा था, जहां भीष्म की प्रतिज्ञा, अर्जुन के टंकार, दुर्योधन की रासलीला को श्रीकृष्ण वाला सुदर्शन भेदने की चाहत पाले बैठा दिखा।
बात मधुबनी की करें। दरभंगा की या संपूर्ण मिथिलांचल की। समस्याएं हर तरफ, चहुंओर एक, समावेशी ही है। पिछड़ती व्यवस्था, टूटते अर्थतंत्र, गहरी होती लथपथ इच्छाएं,मानवता की हकमारी, कराहता तंत्र, लाचार सिस्टम, बढ़ते अपराध, टूटता भरोसा, संप्रदाय के साइनाडम में घुलता मौसमी बुखार। सबकुछ वही दिखा, उसी मैदान पर रोता-बिलखता मिला, जहां से लोकसभा प्रवास खत्म हुआ है।
जब सवाल सत्ता से पूछे जाएंगें, तो निसंदेह उसकी धार में बहती जनता के दु:ख-दर्द की बातें दो टूक होंगी। जब सवाल सरकार से दागे जाएंगें, तो उसकी तासीर वहीं से गुजरेगी जहां से खोखलेपन का अहसास, आम-आवाम के जेहन में जिद की तरह पैठ में शुमार, बाबस्त खड़ा है।
सवाल यह कतई नहीं होगा, नीतीश बाबू, पीएम की कोई वैकेंसी नहीं है, नहीं। सवाल हम पूछेंगे, नीतीश बाबू, आखिर हमारे कल-कारखाने क्यों उदास पड़े हैं। क्यों घरों के चूल्हें में वो गर्मी नहीं दिखती। आग में पानी का रेसा क्यो है? क्यों, बच्चों के स्कूली रास्ते आज भी नाव की सवारी से मौत के रास्ते खोल रहे हैं? क्यों, स्कूली दीवारें चीख रही हैं। क्यों पोथी की जगह, हमें बच्चों को रोजाना भोजन के नाम पर अफवाह परोसे जा रहे। क्यों अभिभावकों में पढ़ाई का रूझान कम हो रहा? क्यों आज स्वास्थ्य सुधारने वाले अस्वस्थ, दवा की बाट जो रहे? क्यों इलाज के नाम पर बेड की जगह जमींन ही नसीब हो रही? जरूरतों में जंग खाए सिस्टम में फंसकर, उसकी अभिशप्त में हमारे बच्चे, क्यों डूब रहे हैं? क्यों मस्तिक ज्वर से मर रहे?
सवाल यह भी पूछे जाएंगें कि आखिर ऐसे सवाल पूछे क्यों नहीं जाते? रटा-रटाया स्क्रीप्ट, उसी का वाचन, उसी की वाहवाही, उसी को परोसने, थोपने की जिद आखिर क्यों? इसे जनता कब तक सुने, कब तक भोगे। जो काम प्रवक्ता का, वही काम, वही सवाल उच्चपदवान्वित कैसे कर सकता है? या कर रहा है? या करना चाहिए?
सत्ता पाना और सत्ता को खो देना, दो बातें हैं। लेकिन, जनता की अपेक्षाओं, जरूरतों, उम्मीदों पर खड़ा उतरना दूसरी बात। मगर, यह शुरूआत भी है। जहां, नई परंपराएं जकड़ती खड़ी मिलती-दिख रही है। जहां कोसना, ज्ञान बांटना, संवेदनाओं में उजागर करने की प्रवृत्ति कचोट मारती दिखी है।
यह दीगर है, ऐसा मंचीय स्थल कतई बिहार का झंझारपुर नहीं हो सकता। झंझारपुर ही नहीं, संपूर्ण मिथिलांचल जहां आज करेह की मानिंद कराहता, उफनाता, डूबता, तिनके संजोता, सुखाड़ के दरकते हिस्सों में टीस के साथ उभरने की कोशिश में विविध झंझावातों में फंसा, उसी की दयात्मक स्वीकृति से मुक्ति की फिराक में हाथ जोड़े रहम की तनख्वाह मांगता दिखता हो। उनकी ओर झांकना मुनासिब समझ भी कोई रहा है? यह दिखता नहीं। समस्याओं को टटोलने की कोशिश भी कोई करे, मगर दिखाई नहीं पड़ने वाला, वह कोई कौन है? बस, भीड़ की चाहत,हमें उस नब्ज को टटोलने कहां दे रहा, जिससे मिथिलांचल की बीमारी का पता तो चल सके। मगर, यह नब्ज थामेगा कौन?
जो गर्जनाएं, ललित-कर्पूरी ने सुना। झंझारपुर को समेटे, संपूर्ण मधुबनी, दरभंगा तक जो बातें पहुंची, उसका स्थल फिलहाल झंझारपुर से होना, कोई मायने रखता हो या दिखे ऐसा कतई नहीं दिख रहा। इन बातों का बेहतर मंच राजधानी पटना होता, जहां से नो वैंकेसी का बोर्ड संपूर्ण बिहार देखता। सुनता। सच मानिए, झंझारपुर दीर्घकालिक मंच है, ना की तात्कालिक, पटना से वर्तमान राजनीति की परिभाषा का वाचन, लालू-नीतीश के मिश्रण से निकलते घोल की गंध को संपूर्ण बिहार भोगता, उसकी चासनी में सिहरता, तो बेहतर। कारण, जरा सोचिए, झंझारपुर को मिला क्या?
सवाल यह नहीं, कौन तेल है और कौन पानी। जातिवाद के साइनाइड में देश, समाज, प्रदेश को खंडित करने वाले, चार शब्द खुद गढ़ नहीं सकते, मगर प्रवचन देंगे, रामचरित मानस पर। उसी प्रवचन से चुनाव होंगे। उसी का हर मंच से वाचन होगा। सवाल उठाए जाएंगें सनातन पर। तय मानिए, यह राम के चरित्र के आवरण वाला देश है। यह श्री कृष्ण के गीता का सार वाला देश है। यह किसी नेता के चरित्र चित्रण से ना बदला है, न बदलेगा। इसका वरण जन्म के साथ हो चुका है, इसे उघारने वाले सिर्फ उस व्यापार के हिस्सा भर हैं, जिसकी कमाई से सत्ता की गली खाली रहती है। सत्ता का सिंहासन कभी खाली नहीं होता।
कुछेक माह पूर्व इंटरनेट सेवा की बंदी से मुक्त हुआ दरभंगा और मधुबनी के लिए यह बिल्कुल नया अनुभव था। यहां की असीम संभावनाओं के लिए यह नई तरीके, सलीखे वाला कुठार, आत्मघाती नस्तर था। यह यहां की मर्यादा, रहन-सहन, सोच, सार्मथ पर संपूर्ण चोट था, जिस बूते आज तक मिथिला का गान होता रहा है, या हो रहा। कारण, यह बातें, हमारे बीच ही नहीं रहीं। दरभंगा-मधुबनी से निकली, सीधे गृहमंत्रालय तक पहुंची। वहां से आया फरमान, सरकार से तलब और उसके मायने क्या निकले या निकल रहे? सोचनीय है, इस बंदी का उत्तर, उसका संपूर्ण जवाब सरकार को नहीं, दरभंगा और मधुबनी के आवरण उसके बदलते दृष्टिकोण को देना चाहिए, जिस नासमझी ने ऐसी नौबत आन खड़ी की, हमें पाश्चाताप करने को विवश किया।
जरा सोचिए, मिथिला और हमारी मरूआ दोनों आज बिलख क्यों रही? दोनों का मान आज पूरा देश ही नहीं संपूर्ण दुनिया क्यों कर रहा? आहारविद् उसी मरूआ को जीवन रक्षक मान रहे, जो हमारी माटी ने हमें दिए, कभी उगले थे, आज खोजने में हम जुटे हैं। मगर, मिलती कहां है अपनी मरूआ।
यही वो सनातन है। यह हमारे संस्कार में, हमारी खून में, हमारे नफस में समाहित है। इसे हमारी जननी ने हमें सौंपा है। हर सेंकेड हम इसे दूसरों को जाने-अंजाने में सौंप, उस विरासत के अंश को बांट रहे हैं। सनातन ना किसी के बहकावे में आया है। न बहकेगा। न उखड़ने वाला था ना उखड़ेगा-नष्ट होगा। यह जमा है, रग-रग में जम चुका है। वह निरंतर निर्विकार है। हमारी संपूर्ण मान्यता है। यह मंचीय हिस्सा कतई नहीं है। मगर, मुद्दे की बात करता कौन है? मुद्दे यही बनते हैं, सनातन पर खतरा है, अरे जिसका कोई काट, विखंडन ही नहीं हो सकता, उसपर खतरे की बात उस तरफ इशारा कौन कर रहा? उसे हवा देने की जरूरत महसूस कान कर रहा?
जो खुद के समीकरण में आया है, जो संपूर्ण ज्ञान है, जो खुद व्याकरण का रचियता है, जो खुद ही ब्र्हांड तय करता है। छोटा सा उदाहरण, 17 सितंबर नाम जेहन में आते ही याद आ जाते हैं, शिल्पदेव विश्वकर्मा, मगर, इसबार ही नहीं, कई सालों से यह खिसकर 18 सितंबर पर अनायास चला जाता दिख रहा। मगर, यह मिथिला है। यहां की परिपाटी बदलती रहती है। सो धर्म, आध्यात्म ने भी दो दिनी शक्ल में आज हमारे बीच ठीक उसी हैसियत से खड़ा है, जहां एक राजनेता धर्म की आड़ में हमें बांटने पर आमादा, भरपूरा दिखता-दिख रहा है।
कोई सवाल यह नहीं पूछता, आखिर मिथिला चाहता क्या है? मिथिला अपने उद्योग को वापस चाहता है। धंधे को अपनी तरक्की का औजार बनाना चाहता है? बंद कल-कारखाने से धुंआ उगलते देखना चाहता है? उसकी कर्कश आवाजों से रातों की नींद की उम्मीद पाले बैठा है। जो पुर्जे बेच, चोरी के हिस्से बन गए, उसका पूरा हिसाब चाहता है? अपने नौनिहालों के लिए अपना रोजगार चाहता है? ललचाई नजरों से दूसरे प्रदेशों को निहारना, उसकी चिड़ोड़ी भला उसे पसंद कहां? वह अपने हिस्से का अधिकार चाहता है? जब घर में पर्याप्त संसाधनों की भरमार हो, पराए पैसों की चाहत भला उसे कैसे सुहा-भा सकता है?
मिथिला की पहचान कर्मठता है। हम अपने द्वार खुद खोल सकते, बस उसकी तकनीकी जरूरतों, उसकी अर्हता को पूरा करने की जरूरत है, मगर करेगा, देगा कौन? खोलेगा कौन? ये वही मधुबनी और दरभंगा है जो पर्यटन की अपार संभावनाओं को खुद में समेटे दरकिनार बैठा है।
उस उपेक्षित पर्यटन से रोजगार की तलाश करेगा कौन? अरे जमीन की फसाद में दरभंगा एम्स को फंसाए, जकड़े बैठने की चाहत, हिम्मत कर कौन रहा? इसे मंचीय हिस्सा बनाने की जिद करता कौन दिख रहा? क्या केंद्र और बिहार सरकार की कहासुनी बंद है? क्या दोनों में हुक्का-पानी बंद है? सामाजिक तिरस्कार, बहिष्कार है, जो आपस में बैठकर निष्कर्ष के दो शब्द तलाश नहीं सकते। मुसीबत में कौन है? नुकसान किसका हो रहा? जरूरत किसे है? यह सारी बातें हाशिए पर…मगर, जी-20 के बाद सुर, लय, राग में समझौतावादी लार, नसीहत देते, लालू से बचने की सलाह-मशविरा की दरकार आज किसे है? यह सोचनीय?
बिहार में भाजपा-जदयू में घटती दूरी के कयास क्यों? पहले लालू-नीतीश पर यूं बरसना, इसबार एक को हल्के हाथों से सहलाना, आखिर रिश्ते में चुनरी कहां से? क्यों आज भी नीतीश मजबूरी बनकर विकास के शंखनादी बड़ी पार्टी के सामने खड़े हैं। क्यों, पूर्व विधान पार्षद डॉ. रणबीर नंदन यह कहते दिख रहे, दोनों अगर एक साथ रहें तो बिहार और देश विकास के नए मानदंड को छू सकता है। ये सॉफ्ट पॉलिटिक्स वाला कॉर्नर क्यों तलाशा जा रहा? जी-20 डिनर का स्वाद, निमंत्रण स्वीकारने की मजबूरी, डिनर में छुपे 56 भोग के मायने क्या हैं? क्या लालू जी सही कहे रहे, इससे बिहार के जनता को मिला क्या, क्या लाभ?
आप कहें इसे तेल और पानी, वो कहते हैं, इंडिया से डर, जुमलेबाजी…मगर इससे मधुबनी और दरभंगा को क्या, उसे मिला क्या? कफन तक के लिए पैसे नसीब नहीं। मौत के बाद पोस्टमार्टम के लिए कहां से 5 हजार लाएं, देगा कौन? देगा तो कर्ज की फांसी से लटकती एक साथ उतरी दिखेंगी कई लाशें। समझौता किससे, दूरी किससे, भरोसा किसपर, सवाल कई हैं? सवाल जब पूछे जाने लगेंगे तो सत्ता के पास शायद ही उसका जवाब मिले। दो टूक सुनने की आदी कहां है कोई। जहां, हम आज तक स्मार्ट भी नहीं कहलाए, सिटी की बात आज नहीं करें तो ये बईमानी क्यों है…? याद आते हैं सर्वेश्वर दयाल सक्सेना…’धीरे-धीरे’,मुझे सख़्त नफ़रत है, इस शब्द से। धीरे-धीरे ही घुन लगता है, अनाज मर जाता है, धीरे-धीरे ही दीमकें सब-कुछ चाट जाती हैं, साहस डर जाता है। धीरे-धीरे ही विश्वास खो जाता है, सकंल्प सो जाता है।जरा सोचिए…मनोरंजन ठाकुर के साथ।