मई,18,2024
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फिर क्या करोगे, सोच लो…Manoranjan Thakur के साथ

हद है। इससे नीचे और कहां तक? शायद इन दिनों इसी की होड़ है। अच्छी पत्रकारिता दिखती नहीं। इसके लिए प्रतिद्वंद्विता कहीं मिलती, दिखती नहीं। घटियापन से भी घटिया हरकतें। उसी के जरिए अपने-आपको, संपूर्ण मीडिया को, पत्रकारिता, उसके पत्रकारों को निर्वस्त्र दिखाने की परंपरा ने साख पर कई सुराख कर दिए हैं। पत्रकारों की कोई श्रेणी बची नहीं? पत्रकार आज कतई वर्गीकृत नहीं हैं। उनके दिमाग खरीद लिए गए हैं। दिमागों में अश्लील सड़ाध भर दिए गए हैं। ठीक वैसे ही, मानो फेसबुक पर कोई अपनी फेस गंदी तरीके से मोड़ रहा हो। गंदी बातें लिख रहा हो, उसे ही परोस रहा हो। और, जिद यही, उसे ही पढ़ो, उसे ही लाइक करो, उसे शेयर करो। मगर कबतलक...सोच लो...। ये अभी रिहर्सल है। मंचन बाकी है। सोच लो...।

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पत्रकार निशाने पर हैं। होनें भी चाहिएं। वाजिब भी है। गैर वाजिब भी। अवैध फंडिंग। संदिग्ध फंडिंग। जुड़ते चीनी कंपनियों से तार। आतंकवाद विरोधी ‘यूएपीए’ वाली एफआईआर। ईडी का मुकदमा। तफ्तीश की गूंजाइश। हाईकोर्ट से राहत। अब तीस ठिकानों के गर्त में पत्रकारिता की जद। भद्द पिटती व्यवस्था।

स्पेशल सेल। छापे। क्या कहते हैं। सरकार की आलोचना। किसान आंदोलन का कवरेज। फर्क दिखता है। एडिटर्स गिल्ड चिंता में है। किसे बचाएं। पत्रकारिता को जिंदा रखें। या, अपराध की तफ़्तीश में कानून को उचित प्रक्रिया का पालन करने दें।

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता। असहमति। आलोचनात्मक आवाज़ों को उठाने पर रोक की संभावना तलाशते वर्ग को समझाएगा कौन। वरिष्ठ पत्रकार प्रंजॉय गुहा ठाकुरता के शब्द। एएनआई का माइक। और सवाल पूछिए…, मोदी जी भगवान के अवतार हैं। मोदी जी महान हैं।

मतलब क्या हैं। निष्कर्ष क्या निकाले जाएं। जब प्यादे-धोड़े चाल चलेंगे। मंत्री स्पष्टीकरण देने की जरूरत नहीं समझेंगे। राजा के नाम लिए जाएंगें। राजपाट घिरेगा। बौखलाएगा कौन। शह-मात में फंसेंगा कौन। तो, फिर प्यादे क्या करेंगे। उनका क्या होगा। उनका क्या काम। वो प्यादे हैं। या तो नपेंगे। नहीं तो, मरेंगे। यह देश ऐसा ही है। यहां सब मरते हैं, वह सिर्फ एक सिंहासन के लिए।

मगर, आज उस किले में ही असुरक्षा का भाव है। घटाटोप है। हस्तक्षेप की घुसपैठ है। खुद के प्यादों से घिरी सियासत है। उसी में थकती हलाहल है। लड़ने की व्यस्तता है। किला अस्त-व्यस्त है। रानियां ललकार रही हैं।

कारतूस में बारूद भरे जा रहे हैं। विरोध की खेमेबाजी है। युवराज द्वंद्व में हैं। किला पसोपेश में हैं। कोई युद्ध नहीं चाहता। मगर, बगावत तो है। गृह में चक्रव्यूह है। टूटने, तोड़ने पर सबकुछ आमादा  है। सो, तोड़े जा रहे हैं। सबकुछ चौपट। हताहत। मर्माहत। आत्मचिंतन में डूबा। दरकिनार पड़ा। टके सेर खाजा। मंत्री जाते हैं। रानी से मुलाकात होती है। बैरंग वापसी की लकींर खिंचती, दिखती, बेबस हो जाती है। बिना साम्राज्य से मिले। कोई सभा किए बगैर, सबकुछ खाली-खाली। बीच में अधूरा-लाव-लश्कर।

किले में गुप्त मंत्रणा की सिफारिश लिए मंत्री लौटते हैं। सिंहासन से हस्तक्षेप की मांग होती है। किले पर खतरा सामने है। फतह की मुश्किल होती राह दिख रही है। सब निस्तब्ध हैं। टीआरपी में लुढ़काव। हेटस्पीच में उठाव। सबकुछ असहज कर रहा है।

अलीगढ़ की रानी गुस्से में हैं। मंच पर ही छेड़खानी से खुद को असहज पा रही हैं। हाथ पकड़ने वाला। गले पर हाथ रखने वाला। अपनी ओर खींचने वाला वह कौन था। उसी किले का एक सिपहसलार। अनायास, सब मौन हैं। अचंभित हैं। हर चाल में उल्टी पड़ती रवानी, बेचैन कर रही है। हर मांद में सेंघमारी से हालात अस्थिर है।

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पड़ते छापे। उर्मिलेश, अभिसार शर्मा, अनिंदोय चक्रवर्ती, प्रबीर पुरकायस्थ, संजय राजौरा, भाषा सिंह, सोहेल हाशमी। तीस ठिकाने। चा कौन? बिका कौन? बचेगा कौन? कतार में कब-कब कौन-कहां?

अनुभवी लैपटॉप की बंद होती स्क्रीन। मोबाइल की टच होती आउटगोइंग, इनकर्मिंग। डंप डाटा। दस्तावेज। सीडी। सब खंगलते जा रहे हैं। बिसात पर पड़े। वहीं पर चुप्पी साधे। सोच में डूबी खामोशी। लब सिले। हैरान। निहार में कड़वाहट भी। दिल्ली पुलिस की लंबी होती पूछताछ भी।

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मतलब तलाशता देश। बेमतलब व्यवस्था। बिन सोचे-बिना निष्कर्ष। अनर्गल। होगा क्या। हुआ क्या है। होना क्या है। यहां युवराज भी घिरे हैं। कोई मैदान में उतरने से घबराता, लड़ना कहां, भला चाह रहा कोई। किले की रानी से बगावत का हठयोग सामने है। वो महारानी हैं। उनकी जिद है।

किला छोड़ते सिपाही अपनी व्यथा में व्यस्त हैं। पलायन की नौबत है। पंद्रह सौ गाड़ियों के काफिले के साथ खुद की किले की युद्धबंदी के फंसाने अलग पीड़ा में है। किस तरफ इशारा है। ये नाकाबंदी करेगा कौन। असर क्या होगा। पेटदर्द की शिकायत है। हाजमे की गोली से भला कैसे रूकेगी। कब्ज है, ठहराव है। हर चाल मुनासिब हो जाए। भला कैसे। उल्टी करो। बको। एंबुलेंस भेजो। पत्रकारों को सुलाओ। नींद में धकेल दो। अस्पताल पहुंचाओ। लिखने वाले हाथों पर पट्‌टी की लिबास पहना दो। जुबां बंद कर दो। टेप चस्पा दो।

अगर यूं ही करना है। करो। साफ कहो, नहीं सुधरे। सरकारी अस्पताल में मरोगे। कब्र खुद रहे हैं। कफन तैयार हैं। मरघट में सन्नाटा है। किसे निहार रहे हो। किसे बुलाना चाहते हो। कौन आएगा। शायद कोई नहीं। ना खाया है। न खाने देंगे। फिर क्या करोगे। सोच लो…Manoranjan Thakur के साथ।

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