पटना से बड़ी खबर
राजनीति की एक पुरानी कहावत है- ‘जीत के सौ बाप होते हैं, पर हार अनाथ होती है’. देश की सबसे पुरानी पार्टी की मौजूदा सियासत पर यह कहावत बिल्कुल सटीक बैठती दिख रही है. सवाल यह है कि क्या कांग्रेस सिर्फ चुनावी मौसम में ही गठबंधन करती है और नतीजों की सुई अपने खिलाफ घूमते ही सारा ठीकरा सहयोगियों पर फोड़ देती है?
क्या सिर्फ चुनावी फायदे के लिए बनते हैं गठबंधन?
भारतीय राजनीति में गठबंधन अब एक स्थायी चरित्र बन चुका है, लेकिन कांग्रेस को लेकर यह धारणा लगातार मज़बूत हो रही है कि वह इसे सिर्फ एक चुनावी ज़रूरत के तौर पर देखती है. चुनाव से पहले बड़े-बड़े वादों और सीटों के बेहतर तालमेल के दावों के साथ गठबंधन की नींव रखी जाती है. लेकिन जैसे ही चुनावी नतीजे उम्मीद के मुताबिक नहीं आते, पार्टी के भीतर से ही सहयोगी दल के खिलाफ आवाजें उठने लगती हैं. आरोप-प्रत्यारोप का एक ऐसा दौर शुरू होता है, जो गठबंधन के भविष्य पर ही प्रश्नचिन्ह लगा देता है.
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि यह प्रवृत्ति कांग्रेस के लिए बेहद घातक साबित हो रही है. इससे न केवल पार्टी की छवि एक अविश्वसनीय सहयोगी की बनती है, बल्कि भविष्य में नए दलों को साथ जोड़ने की संभावनाओं को भी कमजोर करती है. यह सवाल उठना लाजिमी है कि क्या पार्टी अपने सांगठनिक कमजोरियों को स्वीकार करने के बजाय हार का ठीकरा सहयोगियों पर फोड़कर आसान रास्ता खोजती है?
हार का ठीकरा सहयोगियों पर फोड़ने की सियासत
यह कोई पहली बार नहीं है जब कांग्रेस के गठबंधन पर सवाल उठे हैं. बिहार समेत कई राज्यों में यह पैटर्न देखा गया है. जब भी गठबंधन चुनाव हारता है, तो कांग्रेस के नेता सार्वजनिक मंचों से लेकर बंद कमरों की बैठकों तक में सहयोगी दल की रणनीति, उनके वोट ट्रांसफर कराने की क्षमता और उनके नेतृत्व पर सवाल खड़े करने लगते हैं. इसके कुछ प्रमुख पहलू हैं:
- वोट ट्रांसफर का आरोप: सबसे आम आरोप यह होता है कि सहयोगी दल के वोट कांग्रेस के उम्मीदवार को ट्रांसफर नहीं हुए.
- सीटों का गलत बंटवारा: नतीजों के बाद यह कहा जाता है कि सहयोगी दल ने अपनी ताकत से ज्यादा सीटें ले लीं, जिससे गठबंधन को नुकसान हुआ.
- नेतृत्व पर सवाल: कई बार सहयोगी दल के शीर्ष नेतृत्व की चुनावी रणनीति और उनके अभियान को भी हार का जिम्मेदार ठहराया जाता है.
इस तरह की बयानबाजी से राजनीतिक अस्थिरता तो पैदा होती ही है, साथ ही उन वोटरों में भी गलत संदेश जाता है जो गठबंधन को एक स्थायी विकल्प के तौर पर देखते हैं.
स्थायी गठबंधन की राजनीति से क्यों दूर है कांग्रेस?
एक बड़ा सवाल यह भी है कि क्या कांग्रेस गठबंधन की राजनीति के लिए मानसिक रूप से तैयार नहीं है? दशकों तक देश पर अकेले शासन करने वाली पार्टी के लिए क्या किसी क्षेत्रीय दल को बराबर का भागीदार मानना मुश्किल होता है? राजनीतिक जानकार मानते हैं कि कांग्रेस आज भी कई राज्यों में खुद को ‘बड़े भाई’ की भूमिका में देखती है और सहयोगियों से हमेशा त्याग की उम्मीद करती है. जब सहयोगी दल अपने राजनीतिक हितों को प्राथमिकता देते हैं, तो कांग्रेस को यह रास नहीं आता.
यही कारण है कि पार्टी एक स्थायी और भरोसेमंद गठबंधन बनाने में लगातार विफल हो रही है. जब तक पार्टी अपनी पुरानी मानसिकता से बाहर नहीं निकलती और सहयोगियों को बराबरी का सम्मान देना नहीं सीखती, तब तक उसके लिए गठबंधन की राजनीति एक ‘मौसमी’ प्रयोग ही बनी रहेगी.








