सत्ता में जो भी सरकारें आतीं हैं बेरोजगारों को रोजगार का सपना दिखाती है। मगर, हकीकत यही है आज तक देश भर बेरोजगारी को दूर करने के लिए कहीं कोई सार्थक हरकत नहीं हुई। कभी बेरोजगारों को सड़कों पर भटकने, खुदकुशी, माता-पिता के अरमानों का गला घोंटते बच्चों को खुदकुशी करने पर मजबूर किया कभी सामाजिक स्तर पर उसे निकम्मा कहकर उसे उपकृत किया। क्या पढ़ा-लिखा क्या मूर्ख-गंवार सबके सामने रोजगार की चिंता यथावत। बस, सरकार यही नसीहत देती पकौड़ी तल लो…भाई। ऐसे में सवाल यही, न जाने कब ? न जाने कब ये बेरोजगारी दफा होगा अपने भी जिंदगी में एक सवेरा होगा! न जाने कब अपने पैरों पर खड़े हो जाएंगे हम भी नौ से पांच की भीड़ में खो जाएंगे न। जाने कब, कहां और कैसे फिर हंसेंगें लाखों की भीड़ में भी शायद अकेले होंगें …। अब अंतिम आसरा, केवल बेरोजगारी भत्ता है, जिसकी कि निर्णयकर्ता आने वाली सत्ता है। नौकरी बन गई है, सामाजिक हैसियत का पैमाना, उसने आज तोड़ दिया सामाजिक समरसता का ताना-बाना। नौकरी पर्याय है नौकरशाही की, नौकरी पर्याय है लालफीताशाही की, तमाम डिग्रियां और उपलब्धियां नौकरी की मुहताज हैं, रोजगार पाने वाला हर व्यक्ति सरताज है। ऐसे में है प्रभु! एक बेरोजगार क्या करे? क्या नौकरी खोजने का रोजगार करें।






You must be logged in to post a comment.