धोखा कहूं किस्मत का या कहूं नसीबों की बातें, इसे दिल चीर कर रख दिया तकदीर के धोखे ने, अफसाने वजूद हुआ करते थे उसके आने से जुगनुओं सी चमक थी जिसकी आंखों में, समय की धारा बहे जाती थी उसकी, मुस्कुराहटों को देख कर न ऐसी खबर थी, न ऐसा ऐतबार था की कभी, जीवन में कभी ऐसा दर्द भी मिल सकता है, तकदीर से धोखा खाने पर, दर्द के रंग बदलते देखे हमने, बहुत इस जमाने में, पर अब दर्द ही सहारा है। हालात यही, विष्णुलोक में आज मचा है, जाने कैसा शोर…क्षीरजलधि मे हलचल कैसी, कोलाहल सब ओर…शेषनाग भी मचल रहे है, हरि भी है बेचैन…लक्ष्मी मां के आज दिख रहे विकल बड़े ही नैन। समाचार ही कुछ ऐसा था,अचरज सबको भारी।
खड़ी हुई थी विष्णुलोक में, देव जातियां सारी।अब तक प्रभु को नही मानता, कल मंदिर था आया। पहली बार ही आके उसने स्वर्ण छत्र चढ़वाया, स्वर्ण छत्र के साथ भक्त ने पत्र एक था भेजा, पढ़ने को व्याकुल थे नारद, मुँह को चला कलेजा, प्रभु हरि ने वो पत्र दिया फिर, मुनि नारद के हाथ, प्रभु आग्या पा फिर मुनि ने, पढ़ी पत्र की बात, मैं था तुमको नही मानता, बता रहा क्यूं आज, रोज़गार था नहीं मिल रहा, खाली खाली हाथ। चप्पल जूते घिस- घिस टूटे, दिखी नहीं पर आस, घर में बूढ़ी अम्मा व बहनें भी हुई उदास।
कारण भी साफ,है पैसे का जोर, ज़माना रिश्वत का, चर्चा चारों ओर, ज़माना रिश्वत का, कोतवाल को आकर खुद ही थाने में, डांटे उलटा चोर, ज़माना रिश्वत का, कटी व्यवस्था की पतंग जिन हाथों से, उन हाथों में डोर, ज़माना रिश्वत का
बोले भी तो कैसे वो सच की भाषा,है दिल से कमज़ोर, ज़माना रिश्वत का, जैसे भी हो, अब तो घर में दौलत की, हो वर्षा घनघोर, ज़माना रिश्वत का, समझदार अधिकारी बोला बाबू से, दोनों हाथ बटोर, ज़माना रिश्वत का…।