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दिसम्बर, 24, 2025

एक की प्रशंसा… ये ठीक नहीं…सच मानो तो मनोरंजन ठाकुर के साथ

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हद है। इससे नीचे और कहां तक? शायद इन दिनों इसी की होड़ है। अच्छी पत्रकारिता दिखती नहीं। इसके लिए प्रतिद्वंद्विता कहीं मिलती नहीं। घटियापन से भी घटिया हरकतें। उसी के जरिए अपने-आपको, संपूर्ण मीडिया को,
पत्रकारिता उसके पत्रकारों को निर्वस्त्र दिखाने की परंपरा ने साख पर कई सुराख कर दिए हैं।

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पत्रकारों की कोई श्रेणी बची नहीं? पत्रकार आज कतई वर्गीकृत नहीं हैं। उनके दिमाग खरीद लिए गए हैं। दिमागों में अश्लील सड़ाध भर दिए गए। ठीक वैसे ही, मानो फेसबुक पर कोई अपनी फेस गंदी तरीके से मोड़ रहा हो। गंदी बातें लिख रहा हो, उसे ही परोस रहा हो। मीडिया होना और कहलाना एक ही चीज पहले थी, आज इसके खंड हो गए।

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मीडिया से अच्छे पत्रकार दरकिनार कर दिए गए। जो बचे हैं, संकट झेल रहे हैं। इसी गैर जिम्मेदार पत्रकारिता का नमूना आज दिख रहा है। क्रॉस चेक करने की कतई कोई जरूरत ही नहीं पड़ रही। गैर जिम्मेदारी के नमूने सामने लगातार आ रहे हैं। दूसरे का दोष देखना उसी दोष को ओढ़ लेना। यही आज की पत्रकारिता है। इसकी एक खास वजह भी है। भटकने के तरीके पत्रकारिता के हैं। मगर, इसके पीछे की मंशा उस सिस्टम की है, जिसपर लिखना, बोलना, बहस करना किसी भी पत्रकारिता के घराने के लिए संभव ही नहीं असंभव है। खासकर मौजूदा परिवेश, परिस्थिति में।

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कारण, कोरोना पर बोलना, किसान बिल पर सत्य स्वीकारना, विपक्ष को सही ठहराना, सरकार को कटघरे में लाना यह आज की पत्रकारिता कतई हो ही नहीं सकती। मगर, दर्शक-पाठक यही देखना चाहते हैं। वह चीन, लद्दाख की ग्राउंड रिपोर्ट नहीं देखना चाहते, कारण फटाफट अंदाज में देखने की प्रवृत्ति लोगों में जगी है। लोग जहां जिस तरफ जिज्ञासु होते हैं, उसी को देखना-पढ़ना पसंद करते हैं। यही वजह है, फिल्म अभिनेता सुशांत की मौत का सच या आज की सोनाली फोगाट मर्डर का मामला हर कोई जानना चाहता है।

ब्रेकिंग न्यूज के नाम पर चैनलों पर भी चौबीसों घंटे पहले सुशांत-रिया के विस्तार ही दिख रहे थे। आज सोनाली फोगाट कम, मंदिर-मस्जिद, महागठबंधन, शराब नीति, सीबीआई रेड, ईडी का छापा, गुलाम नबी आजाद के आजाद होने के मायने, किसी एक दल की फजीहत करते एंकर ठीक उसी सलीके मिल जाते हैं जहां एक व्यक्ति की प्रशंसा पूरी उस व्यवस्था के आगे बड़ा और असरदार तरीके से मीडिया पर काबिज हैं, जिसके बिना टीवी चैनलों पर प्राइम टाइम का
डिबेट भी संभव नहीं है। नेता भी उसी में रमे हैं। अभिनेता भी उसी में।

क्राइम शोज में भी यही है। ऐसा तब है, जब देश में कोरोना, बाढ़, बेरोजगारी, सीमा पर तनाव, महंगाई समेत अनेक समस्याएं मुंह बाए खड़ी हैं। लेकिन, मीडिया की ताकत नहीं जो देश की जीडीपी स्तर, गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी, महंगाई पर कुछ लिख-पढ़ ले। यही वजह है, मीडिया की विश्वसनीयता तेजी से घटी है। रिपोर्टर के बदलते मायने को पाठक और दर्शक करीब से जान गए हैं। रिपोर्टर वही खबर लाते हैं, निकालते हैं, जिसकी पहले से इजाजत रहती है। उसी एंगल की बात होती है, जो न्यूज रूम में तय होते हैं।

मीडिया का बंटवारा भी इसी संदर्भ में दिखता है। जहां, बिहार के सीएम नीतीश कुमार मीडिया के सामने हाथ जोड़े दिखते, कहते अपनी भड़ास निकालते, नाराज मिलते हैं। मीडिया वालों से पूछते हैं, आजकल क्या-क्या छप रहा है, ये सब जानते हैं। सबकी आलोचना हो रही है और सिर्फ एक की प्रशंसा हो रही है, ये ठीक नहीं है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार केंद्र सरकार पर निशाने लेते मीडिया पर भी हमलावर होते हैं। कहते हैं, आजकल काम कम और प्रचार ज्यादा किया जा रहा है। देश में सिर्फ प्रचार हो रहा है। मीडिया पर भी कब्जा किया जा चुका है।

सीएम नीतीश हाथ जोड़कर तेलंगाना के सीएम के चंद्रशेखर राव (केसीआर) की मौजूदगी में मीडिया पर पक्षपात के आरोप लगाते, मीडिया से आग्रह करते मिलते हैं, कहते हैं-आजकल सबकी आलोचना हो रही है और सिर्फ एक की प्रशंसा हो रही है। ये ठीक नहीं है। पत्रकारों को निष्पक्ष रहना चाहिए। पहले मीडिया निष्पक्ष थी। लेकिन अभी एकतरफा हो गई है। आजकल क्या-क्या छप रहा है सब देख ही रहे हैं। मीडिया जैसे पहले थी वैसे ही चलनी चाहिए। इस पर ध्यान दीजिए और सबका ख्याल रखिए।

आखिर ऐसा कहने की नीतीश कुमार को जरूरत क्यों पड़ी? क्या सचमुच मीडिया का स्तर गिर गया है। मीडिया का बिकाऊ और एकतरफा रूख क्या मीडिया के लिए खुदकुशी सिद्ध होगा। दुत्कार की नजरों से देखना, उसे परोसते मिलना, मीडिया के थकते कदम क्या संपूर्ण मीडिया, उसकी पत्रकारिता, उसके मिशन के आगे रोड़े बन जाएंगें। पत्रकारिता पीछे घसीटती मिलेगी।

पार्टी के लोग, उसके नेता, पाठक, दर्शक सब बंट जाएंगें। हिस्सों में बंटकर खबरें देखी-सुनी और पढ़ी जाएगी। तय मानिए…यह मीडिया के लिए आत्ममंथन का समय है। कारण, जो हो रहा है, रिपोर्टर के स्तर पर, एंकर या फिर मालिकाना हक वालों की ओर से यह उस मिशन पत्रकारिता का कतई हिस्सा कभी नहीं बन सकता।

शायद, यह अपेक्षा भी नहीं है, जिससे मीडिया के औसत चरित्र ही उजागर हो जाएं। उस चरम स्थिति में पहुंचने से पहले दर्शक, पाठक, श्रोता गलतियों के लिए मीडिया को सार्वजनिक रूप से कहीं मान-मर्दन ना करने लगें, इससे बचेगा कौन? इससे बचाएगा कौन? इसके लिए आगे आएगा कौन? यह यक्ष प्रश्न है।

ऐसे में, कानून, नैतिकता की परिभाषा देने वाले, दोहरे मापदंड अपनाने वाले, देश के चौथे स्तंभ को सार्वजनिक मोड़ पर लाकर बोली लगाने वाले बताएं, क्यों देश के सामने एक और चुनौती लाकर छोड़ रहे हो। पत्रकारिता, पत्रकारों की श्रेणी का वर्गीकृत करने पर तूले हो। या तो पत्रकारिता छोड़ दो या फिर दलाल मीडिया यानी डी कंपनी की स्थाई सदस्यता ग्रहण कर संपूर्ण देश के साथ खुलकर अपना सबकुछ साझा कर लो, कर लो…सिद्धार्थ पीठानी, नीरज, दीपेश सावंत के बाद सुधीर सांगवान और सुखविंदर की तरह तुम भी कबूलनामा…।

सच मानो, इन सबके बीच एक सुखद खबर पत्रकारिता के अध्याय में यही है, हिमाचल से अमर उजाला अपने 22वें संस्करण के साथ अवतरित हुआ है। वह भी ऐसे वक्त पर जब अखबारों की थमती सांसे, मीडियाकर्मियों की बेकारी और लाचारी के बीच और सोशल मीडिया की बेखौफ लंगोट घुमाने की अदा ने पूरे देश को ही पत्रकार बना दिया है।

तकनीक के साथ सूचनाओं की अब सोशल मीडिया पर होती बमबारी में यह दिखने की जल्दी भी नहीं है कि खबरें सही हैं, स्वीकार्य रूप में हैं। कारण, आज बेक्रिंग का दावा कौन कर रहा है। गांव का एक मोबाइल यूजर या लाखों की सैलनी डकारने वाले पत्रकार( यह कहना-समझना बेहद मुश्किल।

पत्रकारिता के हालात बिगड़ रहे हैं। इसे बिगाड़ने वाले खुद पत्रकार ही हैं जो अपनी साख की बोली लगाने से चूक नहीं रहे। सच मानो तो…मीडिया के साख के लिए कुछ तो सार्थक कीजिए, इसे बचाइए…या सीखने-समझने की जरूरत शेष बचा ही नहीं। यह भी तय कर लीजिए। कारण, तकनीक के साथ सूचनाओं की बमबारी और बढ़ेगी, तय मान लीजिए। ऐसे में, सूचनाओं की विश्वसनीयता वेंटीलेटर पर पड़ी मिलेंगी। पत्रकारिता के कालखंड को उल्टा चश्मा से देखा जाएगा। इसका आगाज हो चुका है। सुधर जाइए…या फिर एक नए युग का इंतजार कीजिए…जहां पत्रकारिता के मायने, उसकी शक्ल, उसकी जरूरत, उसकी मंशा, अस्तित्व, उसकी पैदाइश पर ही सवाल पूछे जाने लगेंगे और जवाब देने लायक न तो पत्रकारिता बचेगी ना उसके पत्रकार।

अब देखिए ना, तेलंगाना के सीएम के चंद्रशेखर राव (केसीआर) के साथ सीएम नीतीश कुमार और तेजस्वी भी प्रेस वार्ता में बैठे हैं। पत्रकार सवाल पूछ रहे हैं और सीएम नीतीश बार-बार उठ रहे हैं, उनकी ओर से इशारा कर रहे हैं, नाराजगी जाहिर करते फिर उठ रहे…अरे ये सब क्या पूछ रहे हो…उठते हैं…केसीआर उन्हें बैठाते हैं…फिर वह उठते हैं…कहते हैं इन लोगों (पत्रकार साथियों) का ऐसे ही चलता है…फिर उठते हैं…केसीआर बैठाते हैं…यह पत्रकारिता और सवाल पूछने वालों के लिए भले सामान्य लगे, मगर…इसकी गर्मी पत्रकारिता को जरूर झुलसाएगा…सच मानो तो मनोरंजन ठाकुर के साथ…।

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