संजय कुमार राय, देशज टाइम्स अपराध ब्यूरो प्रमुख। बिहार में बेहतर पुलिसिंग के लिये सरकार को पुराने पैटर्न पर लौटना होगा। अगर ऐसा नहीं हुआ तो आने वाले दिनों में आम जनता के बीच आक्रोश इतना बढ़ जाएगा जिसे संभालना सरकार के बूते नहीं रहेगा।
एक दशक में भ्रष्टाचार इतना बढ़ गया है कि आम आदमी इससे काफी परेशान है। झारखंड राज्य में कभी यही पैटर्न अपनाया गया था लेकिन बढ़ते कुव्यवस्था को देख सरकार पुराने पैटर्न पर लौट गई।
जी हम बात कर रहें हैं पुलिस के क्षेत्र और प्रक्षेत्र के बारे में जीतने भी प्रक्षेत्र थे, अब सरकार ने उन्हें क्षेत्र कर दिया है। यानि डीआईजी या आईजी में से कोई एक पदाधिकारी को क्षेत्र का जिम्मा दिया गया है।
पहले क्या होता था पहले देखा जाता था कि प्रक्षेत्र में सिटी एसपी, एसएसपी, डीआईजी और आईजी विराजमान थे। अब डीआईजी के पद को हटाकर प्रक्षेत्र से क्षेत्र किया गया। जहां, आईजी को जिम्मा दिया गया है। अब एसएसपी और आईजी का गठजोड़ प्रत्येक क्षेत्र में जगजाहिर है। खासकर जिले में थानाध्यक्षों की पोस्टिंग में बड़ा खेल है।
मुख्यालय के सभी आदेश और निर्देश को ऐसे कचरे के डिब्बे में डाल देते हैं। और कागजी घोड़ा इस तरह चला देते हैं जैसे इनकी पुलिसिंग बेहतर है। हाल ही में, पूर्णिया जिला में एसपी के कार्यशैली का पर्दाफाश हुआ। और, एसपी दयानंद नप गये।
करतूत बोलती है कुछ जिलों के एसपी को छोड़ इसी तरह बिहार के कई जिलों में एसपी की करतूत पूर्णियां के तत्कालीन एसपी की तरह है।कई जिलों के एसपी थाना बेच रहें है और खुले आम बेच रहें है। इनके लेन देंन का कोई सबूत तो है नहीं लेकिन इनके कार्यशैली से आप पता लगा सकते है।
मुख्यालय का स्पष्ट निर्देश है कि दागी थानेदारों की पोस्टिंग किसी थाने में नहीं करना है। लेकिन, इस मामले में जांच हो तो कई थाने में दागी पुलिस पदाधिकारी थानाध्यक्ष बन थाना चला रहें है। अब यहां सवाल स्पष्ट है कि दागी थानेदार को किसी एसपी ने कैसे थाना का कमान दे दिया।
इससे स्पष्ट है कि लेन-देन के बाद ही उसकी पोस्टिंग हुई है। एसपी का दूसरे कार्यशैली को गौर किया जाय तो कई थानों में अपर थानाध्यक्ष बनाकर भेज दिया जाता है। लेकिन, वहां थानाध्यक्ष की पोस्टिंग नहीं की जाती। मतलब अपर थानाध्यक्ष ही उस थाना का कमान संभालते हैं। और, कार्यों को अंजाम देते हैं।
इसके बदले भी मोटी रकम ली जाती है। इन सबों का गठजोड़ ऐसा दिखता है कि इनके विरुद्ध कोई वरीय पुलिस पदाधिकारी से शिकायत करता है तो कोई कार्रवाई नहीं होती। यानि आईजी से लेकर थानाध्यक्ष तक ऐसा गठजोड़ कि हम बता नहीं सकते। लेकिन, इसका सीधा असर आम लोगों पर पड़ता है।
एक एफआईआर कराने के लिये पीड़ित व्यक्ति को दर-दर भटकना पड़ता है। बड़ी रकम लेकर ही एफआईआर की जाती है। एफआईआर होने के बाद जब अनुसंधान का सिलसिला जब शुरू होता है, तो इसके भी तरीके गजब है।
आप आर्थिक रूप से मजबूत हैं तो अनुसंधान की दिशा सही रूप लेगी। वरना पीड़ित व्यक्ति शिकायत करते-करते थक जाएगा लेकिन उसे न्याय नहीं मिलेगा। अनुसंधानकर्ता और पर्यवेक्षणकर्ता का गठजोड़ ऐसा कि क्या कहा जाय?
इनका एक बार प्रतिवेदन निकल जाय फिर आपतिकर्ता कही भी चला जाय। इनका सुनने वाला कोई नहीं। पर्यवेक्षण का तरीका बदल गया। जो डीएसपी का प्रतिवेदन निकला, उसी को आधार मानकर एसपी और एसएसपी भी सत्य करार दे देते हैं।
हालात यूं हैं बदत्तर डीएसपी और सिटी एसपी और एसएसपी अब घटनास्थल पर जाते नहीं हैं ताकि सच्चाई का पता चल सके और पीड़ित को न्याय मिल सके। डीएसपी स्तर के पदाधिकारी अब अपने कार्यालय को ही उन्नत किस्म का बना दिये हैं। अलग-अलग धाराओं में दर्ज कांड का टेबल अलग अलग कर दिये हैं, जिसपर चेहेता पुलिस कर्मी तैनात हैं।
यूं निकलता है सुधार पत्र पर्यवेक्षण के लिये वादी और प्रतिवादी को फोन किया जाता है। दोनों से उगाही की जाती है। हत्या जैसे कई मामलों में भी इनकी कार्यशैली का चरित्र चित्रण नहीं कर सकते। कुछ से कुछ पर्यवेक्षण टिप्पणी निकाल देते हैं। जब वादी बड़े-बड़े पुलिस पदाधिकारी यहां तक कि मुख्यमंत्री जनता दरबार में बार-बार जाकर दबाव बनाते हैं तो फिर इनका सुधार पत्र निकलता है।
ऐसे में क्षेत्र को पुनः प्रक्षेत्र बनाने के लिये सरकार को सोचना चाहिये ताकि बीच की कड़ी बना रहें और एसएसपी या एसपी को डीआईजी या आईजी का डर बना रहें। अगर ऐसे ही पुलिसिया व्यवस्था कुछ दिनों तक और चली तो लोगों का आक्रोश सातवें आसमान पर होगा और अप्रिय घटना जगह जगह देखने को मिलेगी।
सूत्र बताते हैं कि इस दौरान थाना से लेकर आईजी स्तर तक कई दलाल विकसित हो चुके हैं। इन दलालों के ठाठ-बाट और हेकड़ी देखेंगे तो आप सोच में पर जाएंगे। सूत्र कहते हैं कि जिले का एसपी एक मुश्त लेकर थाना का कमान देता है।
आईजी साहेब ये करते हैं वहीं, आईजी की ओर से महीना फिक्स कर वसूली किया जाता है। हाल की बात करें तो दरभंगा में एक ऑडियो वायरल हुआ था जिसमें एक इंस्पेक्टर आइजी के नाम पर तीस हजार रुपया मांग रहा था। ऐसे में, बेहतर पुलिसिंग की बात करना बेईमानी है। पैसा पैसा और पैसा करते करते ये पदाधिकारी थकते नहीं। पैसों की उगाही के लिये नये-नये तरकीब ढूंढते हैं और यह सफल भी रहते हैं।