गंदगी के लिए हम सब जिम्मेदार हैं। जगह-जगह सड़कों पर पड़ी गंदगी। पान, गुटका खाने वालों को रोकने जहां-तहां थूकने की बीमारी यहां के लोगों की पुरानी है। घर से निकले सड़क पर पानी उड़ेल दिया। घर का कूड़ा-कचरा फेंक दिया। बस घर साफ रहे। बाहर गंदगी का अंबार हो फर्क क्या पड़ता है। गंदगी फैलाने वाले अपनी हरकतों से बाज नहीं आ रहे हैं। कहते हैं, कीड़े गंदगी की तलाश में चौबीसों घंटे भटकते हैं, जी-जान से वे हर तरफ़ सूंघते हैं गंदगी मेरा मानना है हर इंसान में एक कीड़ा बसता है और इस कीड़े के कारण अच्छा-भला इंसान भी अपनी इंसानियत भूल जाता है वह कीड़े अपनी कोशिशों में कामयाब होने लगता है और, गंदगी को साफ करने के बजाए आदमी उसी गंदगी को वरण उसी में जीने लगता है। आसपास-हर जगह उसे गंदगी अच्छी लगने लगती है। कारण,
धीरज नहीं हो तो
हो जाती गड़बड़,
जीवन की गाड़ी
करती है खड़-खड़ ,
औरों की सुनना न,
अपनी ही कहना—
आदत बुरी है, ये आदत बुरी। मैं भी क्या करूं जो देखता हूं उसी को उकेर देता हूं शब्दों से, रेखाओं से उस पात्र को जीवंत कर देता हूं जो हम हैं आप हैं आपके पड़ोसी हैं भाई, चाचा, ताऊ हैं जो सबके सब लाचार, बेबस हैं उस गंदगी के सामने नतमस्तक और एक मैं हूं… जो देखता हूं वही बोलने का आदी हूं… मैं अपने शहर का सब से बड़ा फ़सादी हूं।
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