सर चढ़ों के सर में चक्कर उस समय आता जरूर । कान मे पहुंची जहां झंकार वंदेमातरम्,हम वही है जो कि होना चाहिए इस वक़्त पर, आज तो चिल्ला रहा संसार वंदेमातरम्,जेल में चक्की घसीटें, भूख से ही मर रहा, उस समय भी बक रहा बेज़ार वंदेमातरम्, मौत के मुंह पर खड़ा है, कह रहा जल्लाद से– भोंक दे सीने में वह तलवार वंदे मातरम। डाक्टरों ने नब्ज देखी, सिर हिला कर कह दिया, हो गया इसको तो यह आज़ार वंदेमातरम्। ईद, होली, दशहरा, सुबरात से भी सौगुना, है हमारा लाड़ला त्योहार वंदेमातरम्। हालात यही है, राष्ट्रगीत के थोपे जाने का विरोध करते–करते लोग गीत में ही खोट ढूंढने लगे हैं। मानो भूल रहे हों कि वंदे मातरम कविता पहले है, राष्ट्रगीत बाद में। लगता है कविता राष्ट्रवाद की बहस में भेंट चढ़ गई है। तिरंगे व राष्ट्रगान के उस दुहरे अनादर को समझ लेने वाले हुक्मरानों ने इसके बावजूद अब अगर वंदे मातरम्’ को जनमानस पर थोपने की कोशिश की है, तो इसकी वजह बहुत साफ है जिसे ज्यादा दुहराने की जरूरत नहीं। हालात यही है कि देश के आधी से ज्यादा हिस्से को वंदे मातरम याद नहीं। क्या होगा देश का सोच लीजिए…।
मौत के मुंह पर खड़ा है, कह रहा जल्लाद से- भोंक दे सीने में वह तलवार वंदे मातरम्
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