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दिसम्बर, 29, 2025

यक्ष प्रश्‍नों में उलझ कर रह गई बूढ़ी सदी ये प्रतीक्षा की घड़ी है क्‍या हमारी प्यास की

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यह समय सपनों को तोड़ने का समय है। मगर यकींन मानिए, सपने टूट जरूर रहे हैं, लेकिन यकीन के साथ कह सकता हूं, सपने मरे नहीं हैं। सपने नहीं मरेंगे। भले मुफलिसी के बीच बहुत दूर गांव है मेरा, जहां लालटेनों की मद्धिम रोशनी में सबको याद करते हुए, मैंने अच्छे दिनों के कई ख्वाब देखे, पर यकींन मानिए, मुझे अक्सर गलत समझा गया है। इसमें कोई संदेह नहीं होना चाहिए कि मैं अपने देश को प्यार करता हूं, लेकिन मैं इस देश के लोगों को यह भी साफ़ साफ़ बता देना चाहता हूं कि मेरी एक और निष्ठा भी है जिस के लिए मैं प्रतिबद्ध हूं। मैं किसी पार्टी का समर्थन सिर्फ इसी लिए नहीं करूंगा कि वह पार्टी देश के नाम पर बोल रही है लेकिन खुद की खातिर, समाज से दूर, व्यवस्था बदलने से दूर, गरीबी, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार से दूर।

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समाज हित व देश हित में सोचे बगैर सिर्फ खुद के लिए…अकूत धन-संपत्ति बंटोरने के लिए, गरीबों का खून चूसने के लिए, भ्रष्टाचारियों से दोस्ती के लिए। ऐसे में, दादा की गुज़ारिश है, हम सब एक मिनट का मौन रखें उस व्यवस्था के खिलाफ जो समाज को खोखला कर चुका है। उस दलदल के खिलाफ जिसमें गरीब, किसान, बेरोजगार, सिस्टम के आगे बेबस हमारी माताएं लाचार दिख रहीं। फिर एक मिनट का मौन उन सब के लिए जिन्हें प्रतिशोध में सताया गया, क़ैद किया गया जो लापता हो गए जिन्हें यातनाएं दी गईं जिनके साथ बलात्कार हुए एक मिनट का मौन उन भ्रष्टाचारियों के नाम जो जिंदगी को निगल रहे जो भूखों का निवाला छीन रहे जो व्यवस्था को अंध गर्द में धकेल रहे सिर्फ खुद की स्वार्थ, आत्म लिप्सा के लिए। जिनकी ज़मीनें व ज़िंदगियां उनसे छीन ली गईं। जिन्हें एक बूंद सुख के लिए तरसना पड़ रहा जो हर वक्त खामोशी का एक लम्हा जी रहे, यह जानते हुए कि हम बेआवाज़ हैं, हमारे मुंहों से खींच ली गई हैं ज़बानें, हमारी आंखें सी दी गई हैं, हमारे सारे अरमान दफनाए जा चुके हैं, मिट्टी हो चुके हैं सारे अरमान। जड़ों से उखड़े हुए दरख्त, जड़ों से उखड़े हमारे बच्चों के चेहरों से झांकती मुर्दा टकटकी, हमें ख़ामोश कर चुके हैं।यक्ष प्रश्‍नों में उलझ कर रह गई बूढ़ी सदी ये प्रतीक्षा की घड़ी है क्‍या हमारी प्यास की

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