बिहार में सुशासन का प्रचार तो खूब किया जाता है पर बिहार की जमीनी हकीकत ठीक इस प्रचार के विपरीत है। आइए बात की जाए सुशासन के एक बहुत ही महत्वपूर्ण पहलू आंगनबाड़ी केंद्रों की। लोग यही कहते हैं हकीकत भी कमोबेश यही है कि सीडीपीओ जमकर इसका दुरूपयोग कर रहीं। सेविका-सहायिका के माध्यम से पाल्यों का निवाला उनका हक हजम किया जा रहा है। केंद्रों की दिशा व दशा दोनों ठीक नहीं है जबकि सरकार केंद्रों पर रुपयों की बरसात सेहत सुधारने के लिए करती है लेकिन बिहार इन लक्ष्यों की प्राप्ति से कोसों दूर है।
बुनियादी सुविधाएं खोजे नहीं मिलती हैं और अगर साधन उपल्ब्ध है भी तो वो केवल दिखावे के लिए ही हैं। इस दयनीय स्थिति के बारे में ग्रामीण इलाकों के लोग कहते हैं कि सरकार चाहे किसी की भी हो, लालू-राबड़ी की या नीतीश कुमार की , किसी ने भी केंद्रों की स्थिति सुधारने की तरफ ध्यान नहीं दिया। हमें अब किसी सरकार से कोई उम्मीद नहीं है कि कोई इधर ध्यान देगा। हमारे यहां सही मायनों में केंद्र नाम की कोई चीज नहीं है। अगर सरकार की ओर से तनिक भी ध्यान दिया जाता तो हालात कुछ अलग होते।
ऐसे में, यही बयां करना मुनासिब कि वो दर्द वो बदहाली के मंज़र नहीं बदले, बस्ती में अंधेरे से भरे घर नहीं बदले। हमने तो बहारों का, महज़ ज़िक्र सुना है, इस गांव से तो, आज भी पतझर नहीं बदले। खंडहर पे इमारत तो नई हमने खड़ी की, पर भूल ये की, नींव के पत्थर नहीं बदले। बदले हैं महज़ कातिल और उनके मुखौटे, वो कत्ल के अंदाज़, वो खंजर नहीं बदले। उस शख़्स की तलाश मुझे आज तलक है, जो शाह के दरबार में, जाकर नहीं बदले। कहते हैं लोग हमसे बदल जाओ ऐ शायर, पर हमने शायरी के, ये तेवर नहीं बदले।




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