back to top
3 जून, 2024
spot_img

Special Report : जरा सोचिए और निर्णय लीजिए, आर्यन के आगे फीका पर गया देश के लिए शहादत

spot_img
spot_img
spot_img

भारत माता को ब्रिटिश दासता से मुक्त कराने के लिए मात्र 24 साल की उम्र में हंसते-हंसते फांसी के फंदे पर झूल जाने वाले सरदार भगत सिंह को भला कौन भूल सकता है।

 

आज ही नहीं, भविष्य के भी भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की विश्व में होने वाले चर्चा में भगत सिंह याद करते जाते रहेंगे। आज भी जिस तरह से भारत के सीमा में नापाक हरकत करने वाली विदेशी ताकतों से बचाने के लिए हमारे भारतीय सेना के जवान अपनी शहादत देते रहते हैं लेकिन कश्मीर में लाइन ऑफ कंट्रोल के समीप माइंस विस्फोट में लेफ्टिनेंट ऋषि कुमार की हुई मौत को मीडिया के एक वर्ग ने आर्यन में उलझा रखा तो इस पर चर्चा भी होने लगी है। बात देश के लिए बड़ा शहादत या ड्रग्स, कॉर्पोरेट रंग बिरंगी दुनिया ही सब कुछ है या कुछ सामाजिक सरोकार भी।

लोग कहते हैं कि ऋषि कुमार बिहार के बेगूसराय निवासी (मूल निवासी लखीसराय) ऋषि कुमार ने मात्र 23 वर्ष की उम्र में भारत माता की रक्षा करते आतंकी वारदात में अपनी जान दे दी। राष्ट्रीय स्तर के इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के लिए होनी चाहिए कि एक मां-बाप अपने पुत्र की शहादत के बाद एक-एक पल के घटनाक्रम पर नजर बना रहे थे।

लोग बार-बार टीवी खोल कर, चैनल बदलकर देख रहे थे, लेकिन कहीं कोई जानकारी नहीं। सब जगह, देश की सभी मीडिया हाउस के सभी लोग मुंबई में ड्रग्स मामले के आरोपी आर्यन की ओर थे, कहां उठे कब पानी पिए पर पल-पल नजर रखी जा रही थी।

इधर शहीद के परिवार, गांव-समाज और जिला में लोग परेशान, वह तो भला हो सोशल मीडिया का जिसने कुछ जानकारी देने का प्रयास किया, परिजन लगातार अपडेट लेते रहे। हालांकि पार्थिव शरीर पटना जाने के बाद मीडिया कर्मियों ने तत्परता दिखाई। स्थानीय स्तर पर राष्ट्रीय-लोकल न्यूज चैनल, अखबारों, समेत तमाम मीडिया कर्मियों ने शहीद लेफ्टिनेंट ऋषि के ऐतिहासिक अंतिम यात्रा को भरपूर कवरेज दिया है। लेकिन कहीं ना कहीं दिखी बड़ी गैप चर्चा को जन्म दे चुकी है।

समसामयिक मुद्दों को लेकर लगातार लिखने-पढ़ने वाले प्रयत्नशील डॉ. अभिषेक कुमार कहते हैं कि आंखें नम है, मन विक्षोभित है, हृदय विदग्ध है, आत्मा कलप रही है, मस्तिष्क में जलजला सा उठ रहा है, बस केवल सवाल ही सवाल है।

आखिर उस युवा के जीवन की सार्थकता क्या है जो देश की सुरक्षा की खातिर टीनएज में फौज बनता है और टीनएज में ही अपनी शहादत दे देता है जिस उम्र के अन्य युवा अल्हड़-लापरवाह से होते हैं, स्कूलिंग खत्म कर कॉलेज की ओर रुख करते हैं, मैदानों में फुटबॉल-क्रिकेट खेलते हुए चुहलबाजियां करते हैं, लड़की को देख सिटी बजाते हैं, गर्लफ्रेंड के लिए जुगाड़ बैठाते हैं, उसी उम्र का एक युवा जिसकी नशों में खून के बदले अग्नि प्रवाहित हो रही होती है।

हृदय की धड़कनों में प्रेयसी के बदले जय हिंद अनुगुंजित होते रहता है, सांसों में शहादत की खुशबू समाई रहती है, मस्तिष्क में देश सेवा का जुनून छाया रहता है और मुंह से भारत माता का जयकारा निकलता रहता है। जो सुख-सुविधा और आसान जीवनशैली वाले नौकरियों के पीछे नहीं भागकर फौज की दुश्वारियां भरी नौकरी करता है और चंद महीनों या सालों की नौकरी के दौरान जो शहीद भी हो जाता है, जिसकी अभी शादी भी नहीं हुई है। आखिर वह इस समाज के युवाओं के लिए रोल मॉडल क्यों नहीं बन पाता।

क्यों समाज के युवा एक नशेड़ी, भंगेड़ी, गंजेड़ी, चरसी लेकिन ग्लैमर में डूबे सेलिब्रिटी या सेलिब्रिटी के बाल-बच्चों को अथवा भ्रष्ट और दोगली राजनीति करने वाले युवा नेताओं को रोल मॉडल बनाते हैं। क्यों मीडिया का फ्लैश लाइट उस युवा टीनएजर्स के लिए नहीं चमकता रहता है जो देश की सेवा में समर्पित वास्तविक हीरो हैं। क्यों मीडियाकर्मी एक सेलिब्रिटी के नशेड़ी-गंजेड़ी बेटे-बेटियों के कुकृत्यों को एक टीनएजर्स की शहादत के ऊपर तबज्जो देकर चिल्लाते रहते हैं।

क्या बुद्धू बक्सा सच में बुद्धू ही हो चुका है या यह लोगों को बुद्धू बना रहा है। मीडियाकर्मियों को दुष्कर्मी पुत्र की रिहाई के लिए छाती पीटते सेलिब्रिटी का दर्द महसूस होता है, जबकि वह उस मां-बाप के दर्द को महसूस नहीं कर पाती जो एकलौते बेटे की शहादत उन्हें अंतिम सांस तक टीस मारते रहेगा। क्यों मीडिया कर्मियों को उस बहन का चीत्कार सुनाई नहीं देता, जिसके हिस्से अब केवल भाई की यादें हैं।

मीडिया कर्मियों के लिए एक सेलिब्रिटी की प्रैगनेंसी ब्रेकिंग न्यूज बन सकता है तो एक परिवार जिसका इकलौता हीरा बॉर्डर पर शहीद हो जाता तो शहादत की खबर मिलने के बाद आंखों का आंसू सुख जाता है, जिसके सपने अब कभी उसके अपने नहीं बन पाएंगे। उस परिवार का दर्द बड़े-बड़े कहे जानेे वाले हाउस के दिल्ली, मुंबई और हेड क्वार्टर में बैठे मीडियाकर्मी तथा हमारा समाज क्यों नहीं महसूस कर पाता है। देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए कोई कारगर प्लेटफॉर्म आजतक क्योँ नहीं विकसित किया जा सका है। आतंकवाद और नक्सल समस्या के प्रति सरकार हमेशा ठोस कार्रवाई की बात करती है। सेना के जवानों की शहादत के लिए कौन क्रेडिट लेगा।

अगर आम लोगों की बात करें तो प्रत्येक माता-पिता अपने बच्चों को पढ़ा-लिखाकर एक अच्छी सरकारी नौकरी मिलने का सपना अपनी आंखो में पालते हैं, ताकि उनका बच्चा लग्जीरियस लाइफ जी सके।

आखिर हमलोग केवल लग्जीरियस लाईफ के पीछे ही क्यों भागते हैं, क्यों माता-पिता अपने बच्चों को डॉक्टर-इंजीनियर, प्रसाशनिक अधिकारी बनाने, बैंक, रेलवे, एसएससी में जॉब पाने के लिए तो प्रोत्साहित करते हैं लेकिन फौज बनने के लिए प्रेरित नहीं करते। इन सवालों पर सोचना होगा, सोचिए और निर्णय लीजिए क्या यह स्थिति हमारे, हमारे समाज और हमारे देश के भविष्य के लिए सही है।

--Advertisement--

ताज़ा खबरें

Editors Note

लेखक या संपादक की लिखित अनुमति के बिना पूर्ण या आंशिक रचनाओं का पुर्नप्रकाशन वर्जित है। लेखक के विचारों के साथ संपादक का सहमत या असहमत होना आवश्यक नहीं। सर्वाधिकार सुरक्षित। देशज टाइम्स में प्रकाशित रचनाओं में विचार लेखक के अपने हैं। देशज टाइम्स टीम का उनसे सहमत होना अनिवार्य नहीं है। कोई शिकायत, सुझाव या प्रतिक्रिया हो तो कृपया deshajtech2020@gmail.com पर लिखें।

- Advertisement -
- Advertisement -
error: कॉपी नहीं, शेयर करें