
परचा-परचा उघड़ चुका,
दफ़न,सच, हवाओं में घुल चुका।

ज़ख्म, आंसू, चीत्कार, पुकार अब पर्दों पर बोल रहा,
फिर आंखें पनीली लाल हुईं,
लहू पंडितों का है खौल रहा।

सनातन का किसी से है कोई बैर नहीं,
बाबर के वंशज की मगर, अब है खैर नहीं।
प्रबल वेग है राष्ट्रवाद का, झुकने को तैयार नहीं,
सच के आइने में झूठे ‘नैरेटीव’ से, लीपा-पोती स्वीकार नहीं।

पारस सिन्हा आर्य
दरभंगा।
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