लोकतंत्र में सत्ता जनता की सेवा के लिए एक उपकरण मात्र होती है, न कि किसी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा की पूर्ति का मंच। लेकिन आज, हमारे छोटे शहरों से लेकर राज्य की राजधानी तक, राजनीति का स्वरूप विकृत हो चुका है। नेता अब स्वयं को ‘जनसेवक‘ नहीं, बल्कि ‘राजा‘ समझने लगे हैं। यह सत्ता का अहंकार हमारे लोकतंत्र के मूल सिद्धांतों के लिए सबसे बड़ा खतरा है। जब नेता यह भूल जाता है कि उसकी कुर्सी जनता की अमानत है, तो वह मनमानी, भ्रष्टाचार और अपने निजी स्वार्थ को प्राथमिकता देने लगता है—यही वह ‘राजनीतिक अनर्थ‘ है जिसे हम आज झेल रहे हैं।
विकास नहीं, केवल वोट बैंक की राजनीति
आज की राजनीति का केंद्रीय उद्देश्य ‘विकास‘ नहीं, बल्कि केवल ‘सत्ता में बने रहना‘ है।
चुनिंदा विकास: विकास के प्रोजेक्ट्स (जैसे सड़क, बिजली, पानी) उन क्षेत्रों में केंद्रित किए जाते हैं जहाँ से वोट मिलने की गारंटी हो, जबकि वंचित और विरोधी क्षेत्रों को जानबूझकर उपेक्षित छोड़ दिया जाता है।
लोकतंत्र का अपमान: यह ‘वोट बैंक‘ की राजनीति, लोकतंत्र का अपमान है। नेता यह भूल जाते हैं कि वे पूरे क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते हैं, न कि केवल अपने समर्थकों का। यह सोच अहंकार से जन्मी है कि ‘चूंकि हमने चुनाव जीता है, इसलिए हम जो चाहें कर सकते हैं‘।
भ्रष्टाचार का खुला संरक्षण
संरक्षक की भूमिका: नेता अब भ्रष्ट अधिकारियों, माफियाओं और ठेकेदारों के ‘संरक्षक‘ बन गए हैं। वे अपनी कुर्सी की शक्ति का उपयोग जनता के हित के लिए नहीं, बल्कि भ्रष्ट तत्वों को बचाने और उनसे कमीशन वसूलने के लिए करते हैं। जवाबदेही का अंत: राजनीतिक संरक्षण के कारण ही कोई भी अधिकारी या ठेकेदार प्रोजेक्ट में देरी या घटिया काम के लिए जवाबदेह नहीं ठहराया जाता। जब सत्ता खुद भ्रष्टाचार की ढाल बन जाए, तो न्याय और नैतिकता की उम्मीद कैसे की जा सकती है?
‘राजा’ और ‘प्रजा’ की खाई
सत्ता का अहंकार नेताओं में यह धारणा पैदा करता है कि वे जनता से ऊपर हैं।
अभिगम्यता का अभाव: एक सामान्य नागरिक के लिए अपने चुने हुए प्रतिनिधि से मिलना या अपनी समस्या बताना लगभग असंभव हो जाता है। नेता जनता से दूर, अपने ‘दरबारियों‘ (जी-हुजूरी करने वाले चापलूसों) से घिरे रहते हैं।
दमन की नीति: जो नागरिक या मीडिया उनके भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाता है, उसे दमन, धमकी या कानूनी पचड़ों का सामना करना पड़ता है। यह लोकतंत्र की भावना को कुचलना है।
ज्वलंत आह्वान: सत्ता को आईना दिखाओ!
इस ‘राजा-महाराजा‘ की मानसिकता को बदलने के लिए जनता को अपनी शक्ति पहचाननी होगी।
वोट की शक्ति: नागरिकों को यह तय करना होगा कि वे अगली बार किसे चुनेंगे—क्या उस नेता को जो भ्रष्टाचार का संरक्षक है, या उसे जो ईमानदार जनसेवक बनकर जवाबदेही तय करने का वादा करता है।
निरंतर प्रश्न: हमें सत्ता से लगातार और तीखे प्रश्न पूछने होंगे। हर अधूरे प्रोजेक्ट, हर अवैध काम और हर कमीशनखोरी पर जनता की निगरानी आवश्यक है।
अहंकार तोड़ो: नेताओं को यह याद दिलाना होगा कि वे कुर्सी पर इसलिए हैं क्योंकि जनता ने उन्हें वहां बिठाया है, और जनता ही उन्हें वहां से हटा सकती है। कुर्सी की शक्ति जनता में निहित है, न कि उस पर बैठने वाले व्यक्ति में।
जब तक नेता खुद को ‘जनसेवक‘ नहीं मानेंगे, तब तक लोकतंत्र मजबूत नहीं हो सकता।
हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि सत्ता का अहंकार हमारे नागरिक अधिकारों और लोकतंत्र की मृत्यु का कारण न बने।


