बचकाना, चाटुकार, बदनसीबी…गुलाम नबी आजाद की कांग्रेस को आखिरी चिट्ठी की स्क्रीप्ट बहुत पुरानी है। बस, उसका प्रकाशन आज हुआ है। इसके लिए मंच बहुत पहले तैयार कर लिए गए थे। इसके संवाद बहुत पहले ही लिखे जा चुके थे। अभ्यास उसे कठंस्थ अब, आज किए गए हैं। बस इसका प्रमोशन, विस्तारवादी आवरण, अपनी संकुचित होती मानसिकता, समर्पण के नाम पर खुद के महिमामंडन में कई राज हैं, जिसे कांग्रेस भी जानती है। भाजपा भी जानती है। आज हुआ क्या। कांग्रेस को अपने नए अध्यक्ष की तलाश है। स्वभाविक है। कई नाम सामने आएंगें। आए भी हैं। उनमे चुनाव होना है।
मुश्किल यह है, गांधी परिवार का परिवेश, उसका कांग्रेस के साथ टैग, इतना खास और बड़पन्न से भरा, कुर्बानियों के चादर में लिपटा, उस परिवेश से उपजा, बढ़ा आज सबके सामने है जहां, वंशवाद, परिवारवाद, ऊपर से नीचे खानदान की लंबी होती फेहरिस्त और वर्तमान की दशा, खराब हालत, खात्मे के करीब, छिन्न-भिन्न, अनाथ की शक्ल में खड़े कार्यकर्ता, उनकी मनोदशा आज वैसी नहीं रही, कोई कांग्रेस का नाम लेना भी चाहे। मगर, कांग्रेस जिस सलीके आगे बढ़ी है। बढ़ रही है। वैसे हालात में, एक पुर्नजन्म हो, यह बेहद जरूरी है। कांग्रेस कभी हाशिए पर नहीं रही। हां, वर्तमान परिपेक्ष्य में उसे उसी शक्ल, उसी अंदाज, उसी सूरत में देखा-समझा और जाना जा रहा। मगर, यह भूल है।
कांग्रेस की बदहाली का जिक्र राहुल गांधी से जोड़कर देखना, ठीक उतना ही गंभीर और आलस्यपूर्ण कार्रवाई होगी जितना यह जान लेना कि गुलाम नबी आजाद के रहने और जाने से कांग्रेस को फायदे और नुकसान क्या थे? इंदिरा गांधी, राजीव गांधी और सीताराम केसरी के अध्यक्ष की ताजपोशी को छिनकर सोनिया गांधी के अध्यक्ष बनने तक का लंबा इतिहास क्या आज के परिपेक्ष्य में सामुच्य, सामंजित हो सकता। इंदिरा का कार्यकाल, राजीव के संक्षिप्त और फिर आज राहुल का यह दौर, क्या परिस्थितियां एक समान थीं या है। कई रंज, कई गम और कई उतार-चढ़ाव के पड़ाव, देश के हालात, उभारवाद और जुनूनपन के इस दौर का फलसफा क्या उस साम्राज्यवाद से कहीं कतई मेल खाता है या खा रहा। इस पांच पन्ने में समेटे, लिखे गए शब्द, उसके तथ्य, उसके आधार में अहं है, ना कि समर्पण। कर्तव्यबोध भी बड़ी चीज है। अगर, स्वीकारोक्ति मनोदशा में लिखा गया हो। मगर, यहां तो एकतरफा निष्कासन है। एकतरफा दुत्कार है। एकतरफा कुछ भी मानने से इनकार है। कारण, जब उम्र बड़ी हो जाए तो संंभला करते हैं, लड़खड़ाते नहीं। सत्ता सुख भोगना और सत्ते की दुहाई देना अगल, दो चीजें हैं। अपनी पार्टी बनाना, लड़ना और हाशिए पर धकेल दिए जाना वहीं से अलग। हर लोकसभा चुनाव में दो सौ पार्टिंयां चुनाव आयोग की दहलीज पर मिलती है। नया क्या दिखता है। विचारधाराएं देश की सिर्फ दो है। पार्टी अलग हो फर्क कहां। सवाल उसी भावुकता के साथ है, जहां संस्थागत अखंडता को ध्वस्त करने वाला रिमोट कंट्रोल मॉडल के रूप में आनंद शर्मा भी सामने हैं।
ऐस में, इस पटकथा की एक अहम कड़ी 28 फरवरी 2022 को ही बुना गया जब, गुलाम नबी आजाद के भतीजे मुबशर आजाद भारतीय जनता पार्टी में शामिल हो गए। कयास तभी से था। यानि, बुनियाद की यह एक ईंट भर थी। अब, एक माह पीछे चलते हैं। 27 जनवरी को, कांग्रेस के वरिष्ठ और असंतुष्ट गुट G-23 के नेताओं में से एक गुलाम नबी आजाद पद्म भूषण के तमंगे से जड़े गए। उन्हें बधाई किसने दिया…कपिल सिब्बल ने। कपिल सिब्बल अभी कहां और किस प्रोजिशन में हैं, सर्वसुलभ है। जवाब किसने दिया, कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने। जयराम नरेश की आज क्या भूमिका है, यह बताने की जरूरत नहीं। उन्होंने, माकपा नेता बुद्धदेव भट्टाचार्य के पद्म पुरस्कार ठुकराने का जिक्र करते गुलाम नबी आजाद पर निशाना साधा था। ट्वीट कर लिखा था, ‘सही काम किया है। वह आजाद बनना चाहते हैं, गुलाम नहीं। वैसे, गुलाम नबी आजाद को मिले पद्म पुरस्कार पर कांग्रेस आलाकमान यानी गांधी परिवार की चुप्पी उस वक्त भी बहुत कुछ कहती, साधती दिखी थी आज उसका बखूबी, वाकिफ परिणाम सामने है। कारण, तय तो यह 15 फरवरी 2021 को ही हो चुका था।
बहुत हसरत रही कि तेरे साथ चले हम,
बस तेरी और से ही कभी इशारा ना हुआ
आइए लौटते हैं उस आंसू पर, जिसने आजाद को आजाद कर दिया। कांग्रेस की एक अहम और मजबूत कड़ी टूट गई। वह भी एक गंभीर सवालों को छोड़ते। यूं इस्तीफा देते तो बात रूकती। मगर, इस्तीफे के ईद और गिर्द गांधी परिवार है। वह परिवार जिसके पास एक तिलिस्म तो है। खानदान के कुर्बान होने का तिलिस्म। मगर, एक आंसु ने कांग्रेस को उस वक्त झकझोरा, एक हल्का झटका मारा है, जहां कांग्रेस भारत को जोड़ने वाली है। राहुल गांधी एक प्रयोग के साथ आने वाले हैं। सामाजिक ग्रुपों की इसमें सहभागिता बताती है। कुछ बड़ा मंच तैयार होगा। अन्ना हजारे के आंदोलन के समय नकारेपन से पैदा हुए शून्य को भरने के लिए जिस सिविल सोसायटी को विकल्प माना गया था, वह विकल्प कांग्रेस से मिलता-जुलता-हाथ बढ़ाता दिख-मिल रहा है।
2024 के चुनाव के लिए कांग्रेस का फोकस इसी सिविल सोसायटी की ताकत से बीजेपी की धार कुंद करना है। मगर, आजाद को लगा, यह धार, यह विचार, यह धारा उन्हें और बैकफुट पर तलाश, फेंक देगा, जहां पहले ही वह दरकिनार, उस कोने में पड़े थे, जहां जम्मू चुनाव में भी उनकी दादागिरी चलती इसमें भी शक था। नववादी कांग्रेस में नए सियासी रंग में रंगा ‘एक्टिविज्म’ आजाद को नहीं भाया। इसे स्वीकारना उनके लिए सहज और आसान नहीं था। कारण,यह कांग्रेस की नवपैदाइश की पहली सीढ़ी थी जिसे कमजोर कर उस आंसु की कीमत को अदा करना इन्हें भाया, ललचाया और बहुत कुछ दे गया।
अन्ना हजारे के जन लोकपाल सत्याग्रह, शाहीन बाग का धरना-प्रदर्शन, कृषि कानूनों के खिलाफ किसान आंदोलन समेत मोदी सरकार के खिलाफ होने वाले विरोध-प्रदर्शनों में आजाद खुद को अकेला खड़ा पाए। आंदोलनजीवी साबित होने से कैसे बचा जाए इसकी जुगाड़ में पांच पन्ने का यह लंबा फेहरिस्त जो पहले से तैयार, लिखा-पढ़ा रखा था, आज पब्लिश, सार्वजनिक करना मजबूरी हो गया।
कारण, जिस योगेंद्र यादव ने 2019 के चुनाव नतीजे सामने आने के बाद कहा था,’कांग्रेस को खत्म हो जाना चाहिए। क्योंकि, राजनीति में विकल्प के रास्ते में कांग्रेस ही सबसे बड़ा अवरोध है, आज वही योगेंद्र राहुल के साथ पैदलगामी करेंगे, तो हालात, वक्त की सोच तो बदलेगा ही। इसे स्वीकारना भी पड़ेगा। मगर, इस स्वीकार्य में परहेज है तो हाथ में इस्तीफा है। क्योंकि 150 सिविल सोसायटी का समर्थन कुछ कहता है। मेधा पाटकर, योगेंद्र यादव, अरुणा राय, सैयदा हमीद कन्याकुमारी से कश्मीर तक होने वाली कांग्रेस की भारत जोड़ो यात्रा 7 सितंबर 2022 से शुरू होगी।
3500 किलोमीटर की यह यात्रा 12 राज्यों और 2 केंद्र शासित प्रदेशों तक जाएगी। पांच महीने की इस पदयात्रा का राहुल गांधी खुद तमिलनाडु से 7 सितंबर को आगाज करेंगे। जब राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ का मूल उद्देश्य ही पीएम नरेंद्र मोदी के खिलाफ देश में माहौल बनाना है, ऐसे में, आजाद ये मौका कैसे छोड़ सकते थे कि इस्तीफा देकर उस आंसु की कीमत अदा कर दी जाए, जिसे नौ फरवरी वर्ष 21 में जब पीएम मोदीआजाद की विदाई पर बेहद भावुक हो गए थे। पीएम मोदी के रूंधे गले से आजाद संग बिताए पलों के वो यादगार पल यूं तैर उठा था…एक वक्त तो रो पड़े।? पीएम मोदी ने कहा था, गुलाम नबी आजाद सिर्फ दल की चिंता नहीं करते बल्कि वे देश की भी सोचते हैं। मोहभंग के तस्वीर तो पहले ही रेखावरित हो गए थे। बस, उसमें रंग भरना, उसपर तूलिका चलाना। उसे सजाना, संवारना फिर उसे फ्रेम में कंसना बाकी था जो आज कसकर सामने आया। उस दिलचस्पी के साथ, कांग्रेस है, चलता रहेगा। अब देखना यह दिलचस्प है, हो भी रहा, देशहित को सर्वोपरि मानने वाले का नया ठौर कहां, किस तरफ, कब, कैसे और कितनी जल्द तय होता है। सच मानो तो मनोरंजन ठाकुर के साथ (To be honest, with Manoranjan Thakur)