जहां की मिट्टी में हो वेद ऋृचाएं,
ऋृषियों की हो मंडली,
देश की आन पर मिटने वाले
रहते जहां गली-गली
उसी गली में अब सन्नाटा सा छाया हुआ लगता है,
जिसकी औकात नहीं,
वह भी शेर को चांटा दिखाता है,
होती है सर्जरी जब
बिल में घुस जाता है…
राम के वंशज हैं हम जूठे बेर भी खा सकते हैं,
दस्यु-दुष्टों की धृष्टता पर
उसके घर घुसकर प्रत्यंचा टनकाते हैं,
अंतिम युद्ध से पहले
शांति प्रस्ताव कौरवों को सुनाते हैं,
न ले विराम शिशुपाल तो
मुंड पर सुदर्शन चलाना जानते हैं।
कामी-वामी-सरामियों का
पल में हो सकता काम तमाम,
क्षण भर में जुट जाए जनाजा का सामान…
समानांतर व्यवस्था में ही
दुम दबा सकता है हुक्मरान,
मिनटों में बंद हो जाएगा
अतवा-फतवा व फरमान…
क्योंकि…
चौहानों वाली गलती अब नहीं होने देंगे,
जयचंदों की बस्तियां बसने नहीं देंगे…
चार बांस, चौबीस गज,
अंगुल अष्ट अब नहीं गिनेंगे,
हो जहां भी, देशद्रोही कोई भी….
कब्र उन कुत्तों की वहीं…
हर घर से अफजल
निकालने वालों के घर में ही बनेंगे….
पारस सिन्हा
दरभंगा
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