जाले | रतनपुर क्षेत्र के किसान गोपी कृष्ण ठाकुर, राज सिंघानिया, कन्हैया झा, राजा सहनी, कन्हैया चौपाल सहित कई लोग पपीता और अन्य फलों के पौधों की घटती पैदावार से परेशान हैं।
मधुमक्खियों की संख्या घट गई, जिससे परागण और पौधों का विकास प्रभावित हुआ
किसानों का कहना है कि पपीता के पत्ते से प्लेटलेट्स बढ़ने की जानकारी के बाद देसी पपीता पौधा लगभग गायब हो गया।
बाजार से लाए गए पपीता पौधे भी उग नहीं पाते।
सीताफल, अनार, नाशपाती आदि फलों के पौधों का फलन भी घट रहा है।
क्षेत्र में मोबाइल टावरों की अधिकता के कारण मधुमक्खियों की संख्या घट गई, जिससे परागण और पौधों का विकास प्रभावित हुआ।
दर्जनों पौधे लाए, लेकिन कोई भी पौधा जीवित नहीं रह पाया
किसानों ने कृषि विज्ञान केन्द्र और कृषि अनुसंधान परिषद पूसा से दर्जनों पौधे लाए, लेकिन कोई भी पौधा जीवित नहीं रह पाया।
पहले घर पर उगाए गए पपीता के बीज खेत में खुद-ब-खुद उगते थे, लेकिन अब बाजार से खरीदे गए पौधे 30-50 रुपये तक होने के बावजूद फलने से पहले सूख जाते हैं।
पपीता के चारों ओर तुलसी लगाएं
डॉ. हेमचन्द्र चौधरी, बीज निदेशालय, कृषि विश्वविद्यालय पूसा ने बताया कि पपीता के चारों तरफ तुलसी के पौधे लगाने से पौधों को लाभ मिलता है। तुलसी वातावरण में फैले नकारात्मक तत्वों को अवशोषित करती है।
उन्होंने कहा कि पहले किसान रासायनिक उर्वरक कम प्रयोग करते थे और गोबर का अधिक उपयोग करते थे, जिससे मिट्टी में जैविक कार्बन की मात्रा अधिक रहती थी।
वर्तमान में अंधाधुंध रासायनिक उर्वरक प्रयोग और जलवायु परिवर्तन के कारण कीट, कीटाणु और पौधों की बीमारियाँ बढ़ गई हैं।
कम खर्च में अच्छा उत्पादन किया जा सकता है
वैज्ञानिकों ने किसानों को जैविक और प्राकृतिक खेती अपनाने की सलाह दी।
मिट्टी और पर्यावरण के अनुसार खेती करने से कम खर्च में अच्छा उत्पादन लिया जा सकता है, जिससे स्वास्थ्य और पर्यावरण दोनों को लाभ मिलेगा।