आंचल कुमारी | Darbhanga | कमतौल | कला संस्कृति एवं युवा विभाग और पुरातत्त्व निदेशालय के तत्वावधान में चन्द्रधारी संग्रहालय के संग्रहालयाध्यक्ष डॉ. शंकर सुमन के निर्देशन में धरोहर संरक्षण जागरूकता (Heritage Conservation Awareness) के उद्देश्य से अहल्यास्थान परिसर में विरासत यात्रा (Heritage Walk) का आयोजन किया गया।
इस अवसर पर लनामिविवि (LNMU) के प्राचीन भारतीय इतिहास, पुरातत्त्व एवं संस्कृति विभाग के पूर्व संकायाध्यक्ष डॉ. अयोध्या नाथ झा, पुरातत्त्व शोधार्थी मुरारी कुमार झा, पुष्पांजली कुमारी, नीरज कुमार, राहुल कुमार, साहब मंजर सहित कई अन्य प्रतिभागी उपस्थित थे। वक्ताओं ने छात्र-छात्राओं को राजकीय धरोहर (State Heritage) के विभिन्न आयाम और उनके संरक्षण की आवश्यकता के बारे में विस्तृत जानकारी दी।
धरोहरों का संरक्षण: सांस्कृतिक पहचान का आधार
शोधार्थी मुरारी कुमार झा ने कहा,
“आज की पीढ़ी अपनी परंपराओं से कट रही है। जल, हवा और खाद्य संसाधन, जो कभी वरदान थे, आज प्रदूषण के कारण अभिशप्त हो गए हैं। धरोहर हमारी सांस्कृतिक पहचान (Cultural Identity) है, और इसका संरक्षण हमारी जिम्मेदारी है। आने वाली पीढ़ियों को अपनी जड़ों और इतिहास से जोड़ने के लिए हमें सांस्कृतिक एवं प्राकृतिक धरोहरों (Cultural and Natural Heritage) को संरक्षित करना होगा।”
अहल्यास्थान: ऐतिहासिक धरोहर का केंद्र
डॉ. अयोध्या नाथ झा ने अहल्यास्थान के ऐतिहासिक महत्व पर प्रकाश डाला। उन्होंने कहा,
“अहल्यास्थान वह पवित्र स्थान है, जहां भगवान श्रीराम ने भगवती अहल्या का उद्धार किया था। यहां का मंदिर समृद्ध ऐतिहासिक धरोहर (Rich Historical Heritage) का प्रतीक है।”
उन्होंने पर्यावरण संरक्षण पर भी जोर देते हुए कहा कि माउंट एवरेस्ट तक पर कचरे के ढेर जमा हो रहे हैं। नदी-तालाबों का अतिक्रमण (Encroachment of Water Bodies) और वनों की कटाई हमारे प्राकृतिक धरोहरों के लिए खतरा बन गए हैं।
धरोहर के प्रकार और महत्व
संग्रहालयाध्यक्ष डॉ. शंकर सुमन ने कहा,
“धरोहर दो प्रकार की होती है—मूर्त (Tangible) और अमूर्त (Intangible)। जो हमारे बीच भौतिक रूप में मौजूद हैं, वे मूर्त धरोहर हैं, जबकि जिनका भौतिक रूप नहीं है, वे अमूर्त धरोहर हैं।”
उन्होंने विभाग की सजगता का उल्लेख करते हुए कहा कि कला संस्कृति एवं पुरातत्त्व निदेशालय द्वारा इस प्रकार के कार्यक्रम धरोहर संरक्षण के प्रति जागरूकता फैलाने के उद्देश्य से आयोजित किए जाते हैं।
निष्कर्ष
यह कार्यक्रम न केवल धरोहरों के संरक्षण की आवश्यकता को उजागर करता है, बल्कि भावी पीढ़ियों के लिए सांस्कृतिक और प्राकृतिक धरोहरों को सहेजने की प्रेरणा भी देता है।