प्रवीण कुमार झा
लेखक/साहित्यकार/पत्रकार/सामाजिक चिंतक
(संप्रति:आईक्यूएसी सहायक, सीएम साइंस कॉलेज दरभंगा)
जी हां, बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन को सफल बनाने में दरभंगा के नेशनल स्कूल का भी योगदान रहा है। आजादी की अलख जगाने के साथ यह स्कूल देश के कई प्रभावशाली नेताओं की प्रथम पाठशाला बना। पर, आज इसकी सुध लेने वाला कोई नहीं …!
मिथिला क्षेत्र उपासना और अभूतपूर्व ऐतिहासिकता के कारण सनातनी सभ्यता में सदा से ही अलग रूप में स्थापित होता रहा है। इसके समृद्ध इतिहास का का अंदाजा संरक्षित अभिलेखों, पांडुलिपियों, ग्रंथों, मंदिरों, भवनों, तालाबों, बहुमूल्य वृक्षों आदि के अवलोकन से सहज ही लगाया जा सकता है। लेकिन आज की पीढ़ी जिस प्रकार से इन धरोहरों को संरक्षित अथवा संवर्धित करने के मामले में उदासीन हो रही है।
यह एक सोचनीय विषय है कि क्या बेशकीमती इतिहास की रक्षा सिर्फ सरकारी रहम-ओ-करम के भरोसे की जा सकती है? बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन को सफल बनाने के लिए देशभर में स्थापित किए गए नेशनल स्कूलों में से एक दरभंगा में भी स्थित है।
दरभंगा टावर के पास अवस्थित यह स्कूल ऐतिहासिक यादों का साक्षी है। सरकारी और प्रशासनिक उदासीनता की वजह से आज यह भले ही खंडहर में तब्दील हो चुका है। लेकिन, इसकी उपस्थिति आज की पीढ़ी के लिए किसी प्रेरणास्रोत से कम नहीं है।
यह बात 18 वीं सदी के उत्तरार्ध की है। कहते हैं कि उन दिनों दरभंगा में मात्र दो ही हाई इंग्लिश स्कूल हुआ करते थे। एक जिला स्कूल के नाम से प्रसिद्ध नार्थ ब्रुक एच ई स्कूल और दूसरा राज हाई इंग्लिश स्कूल। यहां की शिक्षा तब पूर्णत: नि:शुल्क थी और इसका कुल खर्च दरभंगा राज की ओर से दिया जाता था। लेकिन तत्कालीन दरभंगा महाराज लक्ष्मीश्वर सिंह बहादुर की मृत्यु के बाद अंग्रेजी हुकूमत के दबाव में इसमें फीस लगा दी गई।
इससे निर्धन विद्यार्थियों को काफ़ी कठिनाइयां होने लगी और यह बात राज स्कूल के छात्र कमलेश्वरी चरण सिन्हा को काफी चुभने लगी और इस निर्णय के खिलाफ उन्होंने छात्रों को संगठित करना शुरू कर दिया। जन सहयोग से जल्दी ही वर्ष 1901 में ‘सरस्वती एकेडमी’ जिसे आज एम एल एकेडमी के के नाम से जाना जाता है, उसकी आधारशिला रख डाली।
अब इस स्कूल में छात्रों की पढ़ाई लिखाई के साथ अंग्रेजी हुकूमत का तख्ता उलटने का क्रांतिकारी विचार भी भरा जाने लगा। कहते हैं कि अंग्रेजी हुकूमत के विरोध स्वरूप छात्रों को संगठित कर उनमें राज विद्रोही चेतना का संचार करने का ऐसा परिणाम हुआ कि वर्ष 1920 के आते-आते ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गई कि स्कूलों से निकलने वाले विद्यार्थियों में से कुछ तो कांग्रेस के काम में लग गए, जबकि बहुतेरे बेकार बैठ कर समय बिताने लगे।
इसी बीच महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन की दरभंगा की कड़ी बने ब्रज किशोर प्रसाद वह धरणीधर बाबू। उन्होंने इन लड़कों को काम पर लगाने के लिए एक राष्ट्रीय स्कूल की आवश्यकता समझी।
जल्दी ही एक सार्वजनिक सभा कर इसकी स्थापना का निर्णय लिया गया। और, इसके संचालन की जिम्मेवारी क्रांतिकारी कमलेश्वरी बाबू को सौंपी गई। जानकार बताते हैं कि जल्दी ही यह स्कूल क्षेत्र में असहयोग आंदोलन को सफलीभूत करने का एक ऐसा केंद्र बना कि महात्मा गांधी जब दरभंगा आए, तो इससे प्रेरित होकर उन्होंने देश भर में इस तरह की स्कूल खोले जाने का प्रस्ताव पारित कर डाला।
हालांकि वर्ष 1924 आते-आते असहयोग आंदोलन के शिथिल पड़ने के साथ ही बहुतेरे राष्ट्रीय विद्यालय बंद हो गए, किंतु दरभंगा का नेशनल स्कूल ना सिर्फ चलता रहा, बल्कि आजादी से जुड़े सभी प्रमुख राजनीतिक आंदोलनों का केंद्र बिंदु भी बनता रहा।
आपके लिए यह जानकारी दिलचस्प हो सकती है कि पड़ोसी देश नेपाल के भूतपूर्व प्रधानमंत्री मातृका प्रसाद कोइराला की प्रारंभिक शिक्षा ना सिर्फ इसी शिक्षण संस्थान से हुई, बल्कि उन्होंने यहीं से मैट्रिक की परीक्षा भी पास की।
इसके अलावा नेपाल के एक अन्य भूतपूर्व प्रधानमंत्री बीपी कोइराला, समाजवादी विचारक रामनन्दन मिश्र, धर्मपाल सिंह, बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर, क्रांतिकारी कुलानन्द वैदिक, यदुनन्दन शर्मा सहित अनेक स्वतंत्रता सेनानियों की यह कर्मस्थली रही है।
कहते हैं कि लोकनायक जयप्रकाश नारायण द्वारा शहीद सूरज नारायण सिंह एवं अन्य साथियों के साथ नेपाल के जंगलों में आजाद दस्ता के निर्माण के समय आवश्यक निर्देश एवं सहयोग की गुप्त मंत्रणा कमलेश्वरी बाबू के नेतृत्व में दरभंगा के इसी नेशनल स्कूल में हुआ करती थी।
आजादी की लड़ाई में एक महत्वपूर्ण यज्ञ स्थली का रूप ले चुके इस विद्यालय में गांधी जी, सुभाष चंद्र बोस, जयप्रकाश नारायण, राम मनोहर लोहिया, आचार्य कृपलानी, संत विनोबा भावे, डॉ राजेंद्र प्रसाद सहित सीमांत गांधी उर्फ खान अब्दुल गफ्फार खान आदि निरंतर इस स्कूल में पधारते रहे।
बहरहाल, इसे विडंबना ही कहेंगे कि यह ऐतिहासिक घटनाओं का समय-समय पर साक्षी बनने वाला यह भवन आज अपनी बदहाली पर आंसू बहा, खंडहर में तब्दील होने को मजबूर है और दबंगता के आधार पर अतिक्रमण का शिकार होते हुए अपने मूल स्वरुप को खोता जा रहा है।
अनाथों का आलय भी
उत्तर बिहार के स्वतंत्रता संग्राम के संचालन का केंद्र बिंदु रहे इस स्कूल में वर्ष 1927 में एक अनाथालय की भी आधारशिला रखी गई। इसका शिलान्यास राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के कर-कमलों से किया गया।
इस अनाथालय के प्रति गांधी जी का एक ऐसा लगा था कि वह ना सिर्फ इसके बारे में हमेशा कमलेश्वरी बाबू और डॉ राजेंद्र प्रसाद से पूछते रहते थे, बल्कि जब भी उन्हें समय मिलता वे अनाथालय के बच्चों से मिलना नहीं भूलते। हालांकि सरकारी व प्रशासनिक उदासीनता के कारण अब यहां अनाथालय के होने का शिलान्यास के अवसर पर लगाया गया शिलापट्ट ही शेष रह गया है।
बतौर राष्ट्रपति दो बार यहां पधारे राजेंद्र बाबू
डॉ राजेंद्र प्रसाद का इस स्कूल के प्रति ऐसा लगाव था कि वह देश के राष्ट्रपति के पद का दायित्व संभालने के बाद भी लगातार दो बार यहां बिना किसी पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के पधारे। कहते हैं कि राष्ट्रपति बनने के बाद पहली बार वर्ष 1950 में जब वह यहां बिना किसी पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के पधारे, तो इसे लेकर विरोधियों ने काफी हंगामा खड़ा कर दिया था।
लेकिन, उन्होंने विरोधियों को यह कहकर चुप करा दिया कि ‘राष्ट्रपति के लिए किसी प्रोटोकॉल का पालन करना आवश्यक हो सकता है, लेकिन एक व्यक्ति के रूप में वह कहीं भी जाने के लिए स्वतंत्र हैं।’ राजेंद्र बाबू अंतिम बार 24 मार्च 1955 को यहां राष्ट्रीय शहीद स्मारक गांधी मंदिर का शिलान्यास करने के लिए पधारे।
यह राजेंद्र बाबू की मित्र भक्ति ही थी कि उन्होंने यह पुनीत कार्य अपनी उपस्थिति में अपने मित्र कमलेश्वरी चरण सिन्हा के हाथों कराकर ‘कृष्ण-सुदामा’ की मित्रता का एक उदाहरण प्रस्तुत किया। मातृका प्रसाद कोइराला भी नेपाल का प्रधानमंत्री बनने के बाद कई बार यहां पधारे।
संरक्षण की जिम्मेवारी सरकार की
नेशनल स्कूल की देखरेख के लिए बनाई गई तदर्थ समिति के सदस्य अमरेश्वरी चरण सिन्हा इस राष्ट्रीय धरोहर की बदहाली के लिए सीधे तौर पर दरभंगा के नागरिक एवं राज्य सरकार को जिम्मेदार मानते हैं।
वह कहते हैं, ऐतिहासिक धरोहरों को संरक्षित करने की जिम्मेवारी सरकार की होती है, लेकिन मेरा मानना है कि स्थानीय जनता व जनप्रतिनिधियों की निष्क्रियता की वजह से वह अपने दायित्वों से मुंह मोड़ रही है और इसके फलस्वरूप यह गौरवशाली विरासत आहिस्ता-आहिस्ता दबंगों के अतिक्रमण रूपी गोद में समाती जा रही है।
इनके अनुसार राष्ट्रीय संपत्ति घोषित कर इस भवन के गरिमामय क्रियाकलापों को यदि फिर से पुनर्जीवित किया जाए तो यह इसकी स्थापना से जुड़े लोगों के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होने के साथ-साथ निर्धन असहाय लोगों के लिए एक बड़ा सहारा बन सकता है।