पटना। लोकसभा चुनाव की हार का ठीकरा अभी ठीक से फूटा भी नहीं था कि बिहार में महागठबंधन के अंदर एक नया भूचाल आ गया है. देश की सबसे पुरानी पार्टी ने अचानक ऐसा दांव चला है, जिसने तेजस्वी यादव की RJD समेत सभी सहयोगियों को सकते में डाल दिया है. क्या ये दोस्ती का अंत है या किसी नई रणनीति की शुरुआत?
बिहार के राजनीतिक गलियारों में इस बात की चर्चा तेज है कि कांग्रेस अब ‘एकला चलो’ की राह पर बढ़ने का मन बना रही है. चुनाव के दौरान जो पार्टी गठबंधन की दुहाई दे रही थी, नतीजों के बाद उसके सुर पूरी तरह बदल गए हैं. इस बदलाव ने उस पुरानी बहस को फिर से हवा दे दी है कि कांग्रेस के लिए गठबंधन सिर्फ सत्ता तक पहुंचने की एक सीढ़ी है, जिसे जरूरत खत्म होने पर हटा दिया जाता है.
नतीजों के बाद क्यों बदले कांग्रेस के सुर?
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि चुनाव में अपेक्षित परिणाम न मिलने के बाद कांग्रेस आत्ममंथन के दौर से गुजर रही है. पार्टी के भीतर एक खेमा यह मानता है कि क्षेत्रीय दलों के साथ गठबंधन करने से पार्टी को राष्ट्रीय स्तर पर नुकसान होता है और उसकी अपनी पहचान कमजोर पड़ती है. इसी सोच के तहत अब यह दलील दी जा रही है कि सहयोगियों पर निर्भर रहने के बजाय पार्टी को अपने दम पर खड़ा होना चाहिए.
यह स्थिति बिहार में महागठबंधन के लिए किसी बड़े झटके से कम नहीं है. लोकसभा चुनाव में एनडीए को चुनौती देने के लिए बना यह गठबंधन अब अपने ही अंतर्विरोधों से जूझता दिख रहा है. कांग्रेस की तरफ से आ रहे बयानों ने राष्ट्रीय जनता दल (RJD) और अन्य छोटे दलों की चिंता बढ़ा दी है. सवाल यह है कि क्या हार की जिम्मेदारी किसी एक दल पर डालकर बाकी दल अपनी जवाबदेही से बच सकते हैं?
क्या है ‘चुनावी मौसम की पार्टी’ का आरोप?
कांग्रेस पर यह आरोप कोई नया नहीं है. देश के कई राज्यों में यह पैटर्न देखा गया है, जहां चुनाव से पहले तो कांग्रेस बड़े जोर-शोर से गठबंधन करती है, लेकिन नतीजे मनमुताबिक न आने पर सारा दोष सहयोगियों पर मढ़ दिया जाता है. आलोचकों का कहना है कि पार्टी की यही ‘यूज एंड थ्रो’ की नीति एक स्थायी और भरोसेमंद गठबंधन बनाने की राह में सबसे बड़ा रोड़ा है. इस वजह से पार्टी पर ‘चुनावी मौसम की पार्टी’ होने का ठप्पा लगता जा रहा है.
अक्सर गठबंधन में टकराव की मुख्य वजहें होती हैं:
- सीटों के बंटवारे पर असंतोष.
- चुनाव प्रचार में आपसी तालमेल की कमी.
- हार के बाद एक-दूसरे पर सार्वजनिक रूप से आरोप-प्रत्यारोप.
- गठबंधन का नेतृत्व कौन करेगा, इस पर अस्पष्टता.
महागठबंधन के भविष्य पर मंडराते संकट के बादल
बिहार में कांग्रेस के इस रुख ने महागठबंधन के भविष्य पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं. अगर कांग्रेस अकेले चुनाव लड़ने का फैसला करती है, तो इसका सीधा फायदा एनडीए को मिल सकता है. विपक्ष का वोट बैंक बिखर जाएगा, जिससे बीजेपी और उसके सहयोगियों की राह और आसान हो जाएगी. यह स्थिति न सिर्फ आरजेडी के लिए, बल्कि उन सभी छोटे दलों के लिए चिंताजनक है जो एनडीए के खिलाफ एक मजबूत मोर्चे की उम्मीद लगाए बैठे थे.
अब देखना यह होगा कि क्या कांग्रेस अपने इस स्टैंड पर कायम रहती है या फिर सहयोगियों के साथ मिलकर कोई बीच का रास्ता निकालती है. लेकिन एक बात तो साफ है कि इस पूरे घटनाक्रम ने बिहार में विपक्षी एकता की नींव को हिलाकर रख दिया है और यह तय कर दिया है कि आने वाले दिनों में राज्य की राजनीति और भी दिलचस्प होने वाली है.








