सरकारी नौकरी ताक पर। पॉलिटिक्स पात पर। कीचड़ में हवाई चप्पल। कभी खाली पांव। पैदल। एक शर्ट। एक बु-शर्ट। मानो, सिने अभिनेता अनिल कपूर और उनकी मिस्टर इंडिया वाली स्टंट। एक काली पैंट। एक लाल फुलशर्ट। गले में हरा गमछा। अनायास इस बिहारी स्टाइल चुनाव में उभरे आई-कैचिंग व्यक्तित्व। एक संघर्ष की लंबी दास्तान लिए। कहते भी हैं, जब दो जोड़ी कपड़े हों, फिर नए की क्या जरूरत। इस एक हजार की राशि से और भी काम हो सकते हैं — किसी भूखे को खाना, किसी बेवा की दवाई।
मैं तो व्यक्ति तौर पर इस शख्स का जबड़ा वाला फैन हो गया। चुनावी सभाओं में। खेत-खलिहानों में। जब भी इस शख्स की छवि और इनका श्रव्य-दृश्य माध्यम पर नजर पड़ीं, मैं चौंकता था। आश्चर्य में। क्या सचमुच, बिहार में कोई ऐसा भी नेता है जो चुनाव लड़ रहा। यकीन — एक क्षण विश्वास नहीं होता। मगर, सच्चाई तब सामने आई — बीडीओ साहेब चुनाव जीत गए।
ये बीडीओ साहेब कौन हैं?
नीतीश कुमार की मुख्यधार, उनकी पूरी सिस्टम से लोहा लेने एक जुझारू, कर्तव्यनिष्ठ, समर्पित प्रखंड विकास पदाधिकारी अनायास महज चौदह माह की अपनी नौकरी छोड़ देता है। इन चौदह महीनों में उन्होंने क्या किया, क्या देखा, क्या समझा — यह वहां की जनता के संवादों, पीड़ा, निदान, भरोसे से बखूबी देखा-समझा जा सकता है। तमाम वीडियो फुटेज हैं, जो एक स्वस्थ, निर्भीक, साहसी, ईमानदार अधिकारी की जरूरत और सामाजिक उपयोगिता को बयां कर रहे हैं।
इस बड़ी सीख से सीखने की जरूरत किसे है? एक नेता को? एक अफसर को? प्रखंड और अंचल स्तर पर कार्यरत एक-एक कर्मचारी को? नहीं। इसे जानने की जरूरत हमारी जनता-जनार्दन को है। वजह— आखिर एक अफसर की ड्यूटी क्या होती है? एक राजनेता का धर्म क्या होता है? जवाबदेही क्या होती है? क्या तय है? क्या होना चाहिए? क्या नहीं हो रहा? हम— हमारा सिस्टम— हमारे नेता किस करवट बहक रहे, या सो रहे, या कुछ नहीं करने की जिद लिए अपनी मौज की तारीख गिन रहे।
आज नेताओं का धर्म, नेताओं की जुबानी ही गर सुनिए तो… उनके कार्य — पोर्न देखना, सेक्स करना, पैसे कमाना और जनता के बीच हमदर्दी जताना भर है। जरूरत से ज्यादा अपनी सत्ता को काबिज रखने की जुगाड़ पर इनकी दिनचर्या निर्भर है। यही वजह है — आज पांच रुपए पचास पैसे की दर पर, महीने के कुल लगभग 166 रुपए की लोभ पर वोट बिक गए? भला किसका? भलाई करेगा कौन? क्या आज तक भला हुआ? हम अपनी जवाबदेही की भलाई के बारे में कितने फिक्रमंद हैं? कभी सोचा? नहीं?
जो हमारे मौलिक संवैधानिक अधिकार हैं, उसकी सूची को ही विकास के मायने बताया जा रहा है। यह कैसी व्यवस्था? हम किस जीत-हार की बात कर रहे, जहां ना हारने का कोई फलसफा, ना जीत जाने की कोई करिश्माई बदलाव? खैर— यहां बात हो रही बीडीओ साहेब की।
लेकिन दिल में राजद की हूक थी। वजह — बाबूजी
एक बीडीओ — 53वीं-55वीं बैच के अफसर। 14 महीने की सरकारी नौकरी। फिर अनायास नौकरी से तौबा। नाम — डॉ. गौतम कृष्ण। 17 जून 2014 को नवहट्टा के बीडीओ बने। 8 दिसंबर 2015 को सरकारी चाकरी छोड़ दी। विडंबना — आज वही खुद सरकार बन गए हैं। पहले 2015 में जन अधिकार पार्टी से चुनाव लड़ा। लेकिन दिल में राजद की हूक थी। वजह — बाबूजी। पिता विष्णुदेव यादव लंबे समय तक मधेपुरा सदर ब्लॉक के राजद प्रखंड अध्यक्ष रहे।
पत्नी श्वेता कृष्ण खुद बीडीओ हैं। इसलिए सरकारी तंत्र से जुड़ाव और तंत्र को सुधारने की मनोदशा ने इन्हें महिषी विधानसभा का नया एमएलए बनाया।
जात-पात, दलगत समीकरण की बात बिल्कुल नहीं। बेरोजगारी, पलायन रोकने की मंशा। एक जिद, जो इनके अंदर धधक रही है। साफ कहते हैं— मेरा संघर्ष मेरे आवाम के लिए है। मेरी दो-तिहाई हिस्सेदारी मेरी जनता है। उसकी जरूरत है। वही मेरा बाप, वही मेरी जात।
वोट बिहेवियर पर पीएचडी करने वाले डॉ. गौतम, पटना विश्वविद्यालय के गोल्ड मेडल विजेता हैं। जमीनी युद्ध— गरीबी, अत्याचार, संग्राम, समर, द्वंद्व, सामाजिक टकराव, मानसिक छटपटाहट। और मलाल बस इतना — रोजगार वाली सरकार, सामाजिक अधिकारों वाली सरकार हमारे बेरोजगार युवाओं का क्या करेगी?
एक मूलमंत्र — जीविष सफलता को आत्मसात करने की शपथ। विकसित समाज के लिए परिस्थितियों से जूझने का दम। सोचना कम, कर गुजरने की ठान। तमाम कशमकश, राजनीतिक जटिलताएं, तंत्र की उलझनें, घबराहट — सबके साक्षात्कार के बीच अपने फहम, इल्म, आध्यात्मिक मारिफत को सहेजते हुए डॉ. कृष्ण की सिर्फ एक चाहत — हमरा अपना कोसी प्राधिकरण हो।
हर वक्त सद्भाव, शांति, एकता, सामंजस्य की गुंजाइश तलाशने वाले। भोज की पंगत में खुद थाली परोसने वाले। हर विपत्ति में आगे खड़े होने वाले। आधुनिक बिहार की जमीनी सच्चाई के कथाकार। ऐसे इंसान अगर हर बिहारी के नसीब में हों, तो सचमुच देश कहेगा — हम बिहारी हैं जी।
एक टोकरी भर मिट्टी वाली सड़क पर चलते सर्वहारा, मध्यवर्ग, श्रमजीवी समाज के बीच उभरता एक युवा नेता — कमांडर, मुख्यपात्र, नेतृत्वकर्ता, कथापुरुष, अग्रगामी, प्रगतिवादी। ‘नायक’ से मेल खाती कृष्ण और गौतम दोनों की छवियां — डॉ. गौतम कृष्ण बिहार की नई राजनीतिक विचारधारा की शुरुआत हैं।
श्रीकृष्ण के 64 गुणों में — भाषण, रणनीति, दयालुता, शौर्य, ज्ञान, नैतिक आचरण, मधुरवाणी, संकल्प, निर्णायक क्षमता, विनम्रता — ये सब डॉ. गौतम में झलकते हैं। भीड़ में ढोल-नगाड़ा खुद बजाते, बच्चों को गोद में लिए, माताओं को प्रणाम करते।
वहीं गौतम बुद्ध के करुणा, अहिंसा, ज्ञान, सहिष्णुता के मार्ग को आत्मसात कर आगे बढ़ते। चुनावी यात्राओं में जितना सुना, देखा, जाना — यह मेरी व्यक्तिगत अनुभूति है। इसे किसी धर्म, जात, मजहब, दलगत कोण से न देखा जाए।
क्योंकि सरकारी नौकरी ताक पर और पॉलिटिक्स पात — यानि मिथिला के केले के पत्ते पर — करने वाले ऐसे नेता की शायद पहली झलक हैं — डॉ. गौतम कृष्ण।




