केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में कहा है कि समलैंगिक विवाह की मांग सामाजिक स्वीकृति के उद्देश्य से केवल शहरी अभिजात्य विचार है। इसे मान्यता देने का मतलब कानून की एक पूरी शाखा को दोबारा लिखना होगा।
जय बाबा केदार..!
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केंद्र ने कहा कि याचिकार्ताओं का समलैंगिक विवाह अधिकारों की मांग करना सामाजिक स्वीकृति के उद्देश्य के लिए एक शहरी अभिजात्य दृष्टिकोण है।
उसने कहा, समलैंगिक विवाह के अधिकार को मान्यता देने के अदालत के फैसले का मतलब होगा कि कानून की एक पूरी शाखा दोबारा लिखी जाए। अदालत को इस तरह के व्यापक आदेश पारित करने से बचना चाहिए। इसके लिए विधायिका के पास ही अधिकार है।
केंद्र सरकार की तरफ से सुप्रीम कोर्ट में समलैंगिक विवाह को लेकर तर्क में इस्लाम के धार्मिक संस्कारों का भी हवाला दिया गया है।
सरकार ने तर्क दिया, समान-सेक्स विवाह (Same Sex Marriage) को छोड़ दिया जाए तो खास तौर से विवाह जैसी बहुजातीय या विषम संस्था को मान्यता देना भेदभाव नहीं है, क्योंकि यह सभी धर्मों में शादी जैसे पारंपरिक और सार्वभौमिक तौर से स्वीकार किए गए सामाजिक-कानूनी रिश्ते हैं।
केंद्र सरकार ने आगे कहा है कि ये गहराई से भारतीय समाज में रचे-बसे हैं और वास्तव में हिंदू कानून की सभी शाखाओं में ये एक संस्कार माना जाता है। यहां तक कि इस्लाम में भी, हालांकि यह एक कॉन्ट्रैक्ट है, यह एक पवित्र कॉन्ट्रैक्ट है और एक वैध विवाह केवल एक पुरुष और एक महिला के बीच ही हो सकता है।
समलैंगिक विवाह को कानूनी मंजूरी देने के मुद्दे पर विभिन्न आवेदनों पर उच्चतम न्यायालय 18 अप्रैल को सुनवाई करने वाला है। इससे दो दिन पहले इस मामले की जांच करने के शीर्ष अदालत के फैसले का विरोध करते हुए केंद्र ने पूछा कि क्या एक संवैधानिक अदालत ऐसे दो लोगों के बीच एक अलग सामाजिक-वैवाहिक संस्थान के निर्माण के लिए कानून बना सकती है जिसकी मौजूदा कानूनों में कोई जगह नहीं है।
केंद्र ने कहा कि विवाह की जड़ें भारतीय सामाजिक संदर्भ में अंतर्निहित हैं। हिंदू कानून की सभी शाखाओं में इसे एक संस्कार माना जाता है। यहां तक कि इस्लाम में भी इसे पवित्र माना गया है और एक वैध विवाह केवल एक जैविक पुरुष और जैविक महिला के बीच होता है। भारत में मौजूद सभी धर्मों में यही स्थिति है।