दिल्ली/धर्म डेस्क: सुबह उठते ही कई लोगों के मन में यह सवाल उठता है कि क्या बिना स्नान किए पूजा-पाठ करना या मंत्र जाप करना धार्मिक रूप से उचित है? क्या ऐसा करने से कोई दोष लगता है? हिंदू धर्म में शुचिता और पवित्रता का विशेष महत्व है, लेकिन क्या वाकई हर परिस्थिति में स्नान अनिवार्य है, या कुछ छूट भी मिलती है? आइए जानते हैं इस गहन प्रश्न का धार्मिक उत्तर।
हिंदू धर्म में शुचिता का महत्व
हिंदू धर्म में किसी भी धार्मिक कार्य, अनुष्ठान या पूजा-पाठ से पहले शारीरिक और मानसिक पवित्रता को अत्यंत महत्वपूर्ण माना गया है। स्नान को इस पवित्रता की पहली सीढ़ी के रूप में देखा जाता है। शास्त्रों में उल्लेख है कि स्नान करने से शरीर शुद्ध होता है और मन एकाग्रचित्त होकर ईश्वर की आराधना में लीन हो पाता है। यह न केवल स्वच्छता का प्रतीक है बल्कि सकारात्मक ऊर्जा को आकर्षित करने और नकारात्मकता को दूर करने का एक माध्यम भी है।
स्नान के बिना पूजा: क्या हैं नियम?
सामान्यतः, किसी भी पूर्ण पूजा-अर्चना या अनुष्ठान से पहले स्नान करना अनिवार्य माना गया है। चाहे वह किसी देवता की मूर्ति स्थापना हो, हवन हो या कोई विशेष व्रत-पूजा। ऐसे कार्यों में शारीरिक शुद्धि अत्यंत आवश्यक होती है। बिना स्नान किए ऐसे कार्यों को करने से धार्मिक दृष्टि से अपूर्ण माना जा सकता है और कभी-कभी दोष भी लगने की बात कही जाती है।
किन परिस्थितियों में मिलती है छूट?
हालांकि, धर्म शास्त्रों में कुछ विशेष परिस्थितियों में स्नान के नियमों में छूट भी दी गई है। यह छूट विशेषकर उन लोगों के लिए है जो बीमार हैं, यात्रा पर हैं, या किसी ऐसी स्थिति में हैं जहां तुरंत स्नान संभव न हो।
- बीमारी या अस्वस्थता: यदि कोई व्यक्ति गंभीर रूप से बीमार है या शारीरिक रूप से इतना कमजोर है कि स्नान नहीं कर सकता, तो वह स्वच्छ वस्त्र धारण कर, हाथ-मुंह धोकर, ईश्वर का स्मरण कर सकता है या मानसिक जाप कर सकता है।
- यात्रा के दौरान: यात्रा करते समय या किसी ऐसे स्थान पर जहां स्नान की उचित व्यवस्था न हो, ऐसे में व्यक्ति शुद्ध मन से भगवान का ध्यान कर सकता है।
- तत्काल आवश्यकता: यदि कोई आपातकालीन स्थिति आ जाए और तुरंत मंत्र जाप या ईश्वर स्मरण की आवश्यकता हो, तो ऐसे में भी मानसिक जाप को प्राथमिकता दी जाती है।
- सुबह का प्रारंभिक स्मरण: सुबह बिस्तर से उठते ही, बिना स्नान किए भी व्यक्ति अपने इष्टदेव का स्मरण कर सकता है, नाम जाप कर सकता है या अपने मन में प्रार्थना कर सकता है। इसे ‘मानस पूजा’ भी कहते हैं, और यह अत्यंत फलदायी मानी जाती है।
मन की पवित्रता सबसे ऊपर
धार्मिक ग्रंथों और विद्वानों का मत है कि शारीरिक शुद्धि के साथ-साथ मन की पवित्रता कहीं अधिक महत्वपूर्ण है। यदि मन पवित्र नहीं है, विचारों में अशुद्धि है, तो केवल शारीरिक स्नान का विशेष महत्व नहीं रह जाता। ईश्वर के प्रति सच्ची श्रद्धा, समर्पण और मन की शुद्धता ही पूजा को सफल बनाती है। इसलिए, यदि किसी कारणवश स्नान संभव न हो, तो भी पवित्र मन से किया गया जाप या स्मरण निश्चित रूप से स्वीकार्य है।


