Mohammed Rafi: दिल के तार छेड़ती, आत्मा को सुकून पहुँचाती और वक्त को थाम लेने वाली आवाज़ें कम ही पैदा होती हैं इस ज़मीन पर। ऐसी ही एक आवाज़ थे मोहम्मद रफ़ी, जिनके नग़मे आज भी हमारे जीवन का हिस्सा हैं। मोहम्मद रफ़ी सिर्फ़ एक गायक नहीं थे, वे भारतीय सिनेमा के सुनहरे दौर की आत्मा थे, जिन्होंने अपनी आवाज़ से न जाने कितनी पीढ़ियों को मोहित किया है। आप पढ़ रहे हैं देशज टाइम्स बिहार का N0.1। उनकी गायकी में दर्द, प्रेम, भक्ति, देशभक्ति और खुशी की इतनी सच्ची अभिव्यक्ति थी कि दशकों बाद भी वह ज़िंदा लगती है। सही मायने में वे फिल्मी दुनिया के तानसेन थे।
Mohammed Rafi: एक अमर आवाज़ का संगीतमय सफर
महान गायक मोहम्मद रफ़ी का जन्म 24 दिसंबर 1924 को अविभाजित पंजाब के अमृतसर के पास कोटला सुल्तान सिंह (जो अब पाकिस्तान में है) में अल्लाह रक्खी और हाजी अली मोहम्मद के घर हुआ था। परिवार में उन्हें प्यार से फीको कहकर बुलाया जाता था। उनके पिता, हाजी अली मोहम्मद, पेशे से एक बेहतरीन खानसामा थे। काम के सिलसिले में वे 1926 में अपने परिवार के साथ लाहौर चले गए। फीको ने कोटला सुल्तान सिंह के स्कूल में अपनी शुरुआती पढ़ाई की, लेकिन जब वे बारह साल के हुए, तो बाकी परिवार के साथ लाहौर चले गए। इसके बाद उनकी औपचारिक शिक्षा रुक गई। लाहौर में वे अपने बड़े भाई के साथ, जो नाई का काम करते थे, नाखून काटने और अन्य छोटे-मोटे काम सीखने लगे।
रफ़ी के मन में संगीत के प्रति अटूट प्रेम था, लेकिन उनके पिता इसके सख़्त ख़िलाफ़ थे। इस विरोधाभास के चलते उन्हें चोरी-छिपे रियाज़ करना पड़ता था। लाहौर में उनके घर के पास एक फ़कीर अक्सर एकतारा बजाकर गीत गाता था। रफ़ी उस फ़कीर के पीछे-पीछे अक्सर हज़रत दाता गंज बख़्श की दरगाह तक चले जाते और उसका गाना सुनते रहते थे। एक घटना ने उनके जीवन की दिशा बदल दी। एक दिन, ऑल इंडिया रेडियो के अधिकारी जीवन लाल मट्टो लाहौर के नूर मोहल्ला से गुज़र रहे थे, जहाँ रफ़ी की दुकान थी। उनके कानों में एक बेहद सुरीली और अनोखी आवाज़ पड़ी। आवाज़ का पीछा करते हुए वे उस दुकान तक पहुँचे, जहाँ रफ़ी के भाई बाल काट रहे थे और युवा रफ़ी तल्लीन होकर गा रहे थे। उनकी गायकी से इतने प्रभावित हुए मट्टो साहब ने उन्हें रेडियो में काम करने का अवसर दिया। देश की हर बड़ी ख़बर पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें
कुछ ही समय बाद, लाहौर में उस समय के मशहूर गायक के.एल. सहगल के एक कार्यक्रम में अचानक बिजली गुल हो गई। लोगों को जोड़े रखने के लिए, मंच पर युवा रफ़ी को गाने का अवसर दिया गया। महफ़िल में मौजूद संगीत निर्देशक श्याम सुंदर रफ़ी से इतने मुताशिर हुए कि उन्होंने अपना पता दिया और उन्हें बंबई (आज का मुंबई) आने की सलाह दी। पिता को छोड़कर, रफ़ी के परिवार के बाकी सदस्य उनके हुनर को पहचानते थे और सभी को लगा कि उनका भविष्य बंबई में ही है। किसी तरह रफ़ी बंबई पहुँचे, जहाँ उनके संघर्ष का दौर शुरू हुआ। संगीतकार श्याम सुंदर ने ही उन्हें 1944 में पंजाबी फ़िल्म ‘गुलबलोच’ में ज़ीनत बेगम के साथ युगल गीत ‘सोनिए नी हीरिए नी…’ गाने का अवसर दिया।
नौशाद के साथ बनी ऐतिहासिक तिकड़ी
हिंदी फ़िल्मों में रफ़ी के प्रवेश की बात करें, तो उन्हें पहली बार 1944 में फ़िल्म ‘पहले आप’ में एक कोरस गाने का मौका मिला। इसके बाद उन्हें ‘गाँव की गोरी’ में भी गाने का अवसर मिला। ‘पहले आप’ में उनका कोरस गीत कुछ ऐसा था, जिसमें सैनिकों की कदमताल की आवाज़ के साथ गायकों को भी कदमताल करनी थी। उस समय लाइव रिकॉर्डिंग होती थी, और रिकॉर्डिंग के बाद संगीतकार नौशाद ने देखा कि रफ़ी के पैरों से ख़ून बह रहा था। पूछने पर रफ़ी ने बताया कि उनके जूते कुछ ज़्यादा ही टाइट थे, लेकिन गाने के बीच में वे कुछ कहना नहीं चाहते थे। इसी फ़िल्म में उन्होंने श्याम कुमार के साथ ‘एक बार फिर मिला दे…’ और ज़ौहरा के साथ ‘मोरे सैंया जी…’ गीत गाए। श्याम सुंदर के संगीत वाली फ़िल्म ‘गाँव की गोरी’ में उन्होंने ‘बेखबर जाग…’ जैसे कई गीत गाए।
मोहम्मद रफ़ी की शोहरत और कामयाबी की दास्तां संगीतकार नौशाद का ज़िक्र किए बिना अधूरी है। दोनों ने ‘बैजू बावरा’, ‘कोहिनूर’, ‘मदर इंडिया’, ‘मुग़ल-ए-आज़म’, ‘आन’, ‘गंगा जमुना’, ‘मेरे महबूब’, ‘राम और श्याम’ जैसी अनगिनत सफल फ़िल्मों में साथ काम किया। नौशाद साहब रफ़ी से घंटों रियाज़ करवाते थे, और रफ़ी जी पूरी लगन से अभ्यास करते रहते थे। नौशाद उनसे मज़ाक में कहते थे कि अब जाओ और दूसरे गानों की प्रैक्टिस करो, वरना तुम कभी अमीर नहीं बन पाओगे। नौशाद ने उन्हें कुछ उस्तादों से भी मिलवाया और रफ़ी की आवाज़ की तारीफ़ करते हुए उन्हें तालीम दिलवाई। आप पढ़ रहे हैं देशज टाइम्स बिहार का N0.1। जब रफ़ी साहब ने सहगल साहब के साथ गीत गाने की इच्छा व्यक्त की, तो नौशाद साहब ने फ़िल्म ‘शाहजहाँ’ में गीत ‘रुही रुही…’ के अंत में उनसे एक लाइन गवाकर वह अवसर भी बना दिया, जबकि पूरा गाना सहगल साहब की आवाज़ में था। समय के साथ नौशाद, शकील बदायूंनी और रफ़ी साहब की एक बेहतरीन तिकड़ी बन गई, जिसने भारतीय सिनेमा को कई अमर गीत दिए। वे संगीत के सुनहरा दौर के एक महत्वपूर्ण स्तंभ थे।
आवाज़ में दैवीय शक्ति, स्वभाव में विनम्रता
रफ़ी साहब का हिंदी सिनेमा में गायकी का सफ़र अनुशासन, विनम्रता और लगातार लगन के दम पर बना और आगे बढ़ा। उन्होंने केवल संगीत को अपनाया नहीं, वे अपनी मेहनत से स्वयं संगीत बन गए। चाहे वे शास्त्रीय रागों पर आधारित गीत हों, रोमांटिक गाथाएँ, क़व्वालियाँ, भजन या देशभक्ति गीत, उनकी आवाज़ सहजता से सभी शैलियों में प्रवाहित हो जाती थी। ‘चौदहवीं का चाँद…’ से लेकर ‘लिखे जो खत तुझे…’, ‘चाहूंगा मैं तुझे…’ से लेकर ‘बहारों फूल बरसाओ…’ तक, उनके गीत लाखों लोगों के जीवन के साथी बन गए।
जो बात मोहम्मद रफ़ी को असाधारण बनाती थी, वह थी उनकी आवाज़ के माध्यम से पर्दे पर अभिनेता बनने की क्षमता। उन्होंने दिलीप कुमार, देव आनंद, राजेश खन्ना, शम्मी कपूर, धर्मेंद्र और कई अन्य नामी दिग्गजों के लिए गाया। उनकी आवाज़ कभी दोहराव वाली नहीं लगी। प्रत्येक नायक के लिए उनका स्वर और अंदाज़ बदल जाता था। प्रत्येक भावना के लिए उनकी आत्मा प्रतिक्रिया देती थी। इस तरह की बहुमुखी प्रतिभा दुर्लभ थी, लगभग दैवीय।
अमर आवाज़ का चिरस्थायी प्रभाव
उनकी मधुर आवाज़ के पीछे एक गहरी विनम्रता वाला व्यक्ति छिपा था। अपनी बेजोड़ सफलता के बावजूद, रफ़ी साहब ने हमेशा सादा जीवन जिया, जिससे उनकी कृतज्ञता और गहरी हो गई। बेगम से अलगाव के बाद बिलकिस बेगम से उनकी शादी सहित उनका निजी जीवन सुर्खियों से दूर, गरिमा, प्रेम और सादगी भरा था। रफ़ी साहब का मानना था कि संगीत एक सेवा है। अगर कोई गीत उनके दिल को छू जाता, तो वह अक्सर पैसे की चिंता किए बिना गाते थे। वह पवित्रता उनकी आवाज़ में झलकती थी। एक ऐसी आवाज़ जो लोगों को चुपचाप रुला सकती थी, हल्के से मुस्कुरा सकती थी और बोल समझे बिना भी गहराई से महसूस करा सकती थी। उनके गीत प्रदर्शन नहीं, बल्कि प्रार्थनाएँ थीं। उन्होंने तमाम नए संगीतकारों और गायकों को हौसला दिया, उनके लिए अवसर बनाए। आप पढ़ रहे हैं देशज टाइम्स बिहार का N0.1।
जब मोहम्मद रफ़ी 31 जुलाई 1980 को इस दुनिया से विदा हुए, तो ऐसा लगा जैसे एक युग का अंत हो गया। फिर भी, चुप्पी कभी नहीं आई, क्योंकि उनकी आवाज़ अभी भी घरों, रेडियो, हेडफ़ोन और पीढ़ियों के दिलों में बजती रही है। जिन बच्चों ने उन्हें कभी नहीं देखा, वे भी उनकी आवाज़ के जादू को पहचानते हैं। यही सच्ची अमरता है, उनकी आवाज़ का सम्मोहन।
हिंदी फ़िल्मों में लगभग साढ़े सात हज़ार और अन्य भाषाओं को मिलाकर लगभग आठ हज़ार गीत गाने वाले महान गायक मोहम्मद रफ़ी को अपने करियर में छह फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार, एक बार राष्ट्रीय पुरस्कार और 1965 में पद्मश्री से सम्मानित किया गया, और फिर उन्हें सहस्राब्दी के गायक का सम्मान मिला। मोहम्मद रफ़ी ने सिनेमा के लिए तो गाया ही, उन्होंने इंसानियत के लिए भी गाया। उनकी दरियादिली के तमाम किस्से सुनने को मिलते हैं। जब तक जीवन है, लोगों में भावनाएँ हैं, उनकी आवाज़ ज़िंदा रहेगी। रफ़ी साहब हमेशा याद किए जाएँगे। उन्होंने लता मंगेशकर के साथ गाया भी तो है, “जनम जनम का साथ है तुम्हारा हमारा, तुम्हारा हमारा…”। वाकई, रफ़ी साहब से हमारा नाता कभी नहीं टूटेगा।





