गांव में अपने एक दोस्त को घर के नजदीक नदी किनारे बैठा था। रेडियो ऑन करने पर गीत बजा, जो मुझे पसंद था। बोल थे जनम जनम का साथ है तुम्हारा हमारा…। यह 1982 की फ़िल्म भीगी पलकें का गाना है। इसे सुरों से सजाया है लता मंगेशकर और मोहम्मद रफी ने व संगीतबद्ध किया है जुगल किशोर और तिलक राज ने। एम. जी. हशमत के लिखे बोल हैं। फिल्म में राज बब्बर, स्मिता पाटिल पर यह गीत फिल्माया गया है। गीत को सुनकर मुग्ध हो गए थे। गीत खत्म हुआ, तो भारी आवाज़ में उद्घोषक ने बताया, आज स्मिता जी नहीं रहीं। यह सुनकर हम मायूस हो गए। दिमाग में स्मिता पाटिल की वो बोलती सी बड़ी-बड़ी आँखें तैर गईं। फिर उनकी फिल्मों के दृश्य जेहन में आए। हम सब निशब्द थे। 13 दिसंबर 1986 का ही वो दिन था, जिस दिन हमारी फिल्म इंडस्ट्री की एक बेहतरीन एक्ट्रेस इस दुनिया से चली गईं। इतने बरस बीत जाने के बाद भी स्मिता पाटिल जब भी याद आती हैं, खूब याद आती हैं।
स्मिता पाटिल का फिल्मी दुनिया में आना एक संयोग ही था। एक टेलीविज़न न्यूज़ रीडर से हिन्दी फिल्मों की मशहूर एक्ट्रेस बनने का उनका सफ़र टैलेंट, पक्के इरादे और एक्टिंग के जुनून की कहानी है। उनकी कुछ आइकॉनिक फ़िल्मों में भूमिका, मंथन, अर्थ, बाज़ार, मंडी, नमक हलाल, शक्ति, घुंघरू, भीगी पलकें आदि शामिल हैं।
स्मिता पाटिल का जन्म 17 अक्टूबर 1955 को पुणे, महाराष्ट्र में हुआ था। वे इंडियन सिनेमा में एक ज़बरदस्त नाम थीं। वह शिवाजीराव गिरधर पाटिल (इंडियन सोशल एक्टिविस्ट और पॉलिटिशियन) और विद्याताई पाटिल (एक नर्स और सोशल वर्कर) की बेटी थीं। उन्होंने अपनी शुरुआती पढ़ाई रेणुका स्वरूप मेमोरियल स्कूल, पुणे से की। इसके बाद बॉम्बे यूनिवर्सिटी से लिटरेचर की पढ़ाई की। आगे चलकर फिल्म एंड टेलीविज़न इंस्टिट्यूट ऑफ़ इंडिया (FTII), पुणे से ग्रेजुएशन किया, जिसने उनके शानदार करियर की नींव रखी। कॉलेज के दिनों में ही उनका एक्टिंग सफ़र शुरू हुआ, जहाँ वे लोकल थिएटर से जुड़ी रहीं। थिएटर अनुभव ने उन्हें मज़बूत नींव दी, जिसे उन्होंने अपनी दमदार स्क्रीन परफॉर्मेंस में बदला।
अभिनय का आकाश बेहद कम समय में छूने वाली स्मिता पाटिल ने 1970 के दशक की शुरुआत में मुंबई दूरदर्शन पर टेलीविज़न न्यूज़रीडर के तौर पर करियर शुरू किया। उनका पहला एक्टिंग रोल FTII की स्टूडेंट फ़िल्म तीवरा माध्यम में था, जिसे अरुण खोपकर ने डायरेक्ट किया। यहीं से श्याम बेनेगल की नज़र उन पर पड़ी। उन्होंने 1975 में बच्चों की फ़िल्म चरणदास चोर में कास्ट किया। यह फ़िल्म हबीब तनवीर के नाटक पर आधारित थी, जो विजयदान देथा की राजस्थानी लोककथा का अडैप्टेशन थी। चरणदास चोर (1975) से उनके फिल्मी करियर की शुरुआत हुई। उनका सबसे मशहूर रोल करियर की शुरुआत में ही आया और इसके लिए उन्हें नेशनल अवॉर्ड मिला।
भूमिका (1977), जो हंसा वाडकर की ऑटोबायोग्राफी संगते आइका पर आधारित थी, एक एक्ट्रेस के संघर्ष की कहानी है। उसी साल उन्होंने जब्बार पटेल के निर्देशन में मराठी डेब्यू सामना से किया, जिसे विजय तेंदुलकर ने लिखा था। इसके बाद निशांत आई। इन फिल्मों की तारीफ़ हुई और इसी वजह से मंथन (1976) में उन्हें पहला बड़ा लीड रोल मिला, जहाँ उन्होंने ग्रामीण महिला का किरदार निभाया, जो वर्गीज़ कुरियन की व्हाइट रेवोल्यूशन से जुड़ा था।
भूमिका (1977) के लिए उन्हें बेस्ट एक्ट्रेस – नेशनल फिल्म अवॉर्ड मिला और यह फ़िल्म उनके करियर का लैंडमार्क बनी। उसी साल जय रे जैत के लिए उन्हें फिल्मफेयर अवॉर्ड (मराठी) मिला। अनुग्रहम/कोंडूरा, गमन, द नक्सलाइट्स, आक्रोश, अल्बर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है, सद्गति, भवानी भवई, अर्थ, उम्बरथा, अर्ध सत्य, अन्वेषण, चिदंबरम जैसी फ़िल्मों में उनके यादगार किरदार रहे।
अकालेर संधाने ने बर्लिन इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में सिल्वर बेयर स्पेशल जूरी प्राइज जीता। चक्र (1981) के लिए उन्हें दूसरा नेशनल अवॉर्ड और फिल्मफेयर बेस्ट एक्ट्रेस मिला।
बाज़ार (1982) में नजमा के रोल से उन्होंने औरतों के कमोडिटीकरण पर गहरी छाप छोड़ी। मंडी (1983) और मिर्च मसाला (1985) में उनकी हिम्मत, प्रतिरोध और स्त्री-सशक्तिकरण की छवि उभरकर आई।
आर्ट सिनेमा के साथ-साथ कमर्शियल सिनेमा में भी उन्होंने गहराई लाई। नमक हलाल (1982), शक्ति (1982), आज की आवाज़ (1984), अमृत (1986) सहित कई फ़िल्मों में उनकी वर्सेटाइल एक्टिंग दिखी।
सिल्वर स्क्रीन के बाहर भी स्मिता पाटिल एक पक्की फेमिनिस्ट थीं। वे विमेंस सेंटर, मुंबई से जुड़ी रहीं और महिलाओं के अधिकार व एम्पावरमेंट के लिए आवाज़ उठाती रहीं। उनकी शादी राज बब्बर से हुई और उनके बेटे प्रतीक बब्बर हैं। 28 नवंबर को बेटे के जन्म के बाद आई जटिलताओं के कारण उनकी अकाल मृत्यु हो गई, जिसने पूरे देश को सदमे में डाल दिया। उनकी विरासत उनकी फ़िल्मों और स्मिता पाटिल इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल के ज़रिए आज भी ज़िंदा है।
स्मिता पाटिल की विरासत उनके निभाए गए किरदारों से कहीं आगे है। अपने डेडिकेशन, निडरता और कला के प्रति प्रतिबद्धता के कारण वे इंडियन सिनेमा की आइकॉन बन गईं। वे सिर्फ़ एक एक्ट्रेस नहीं थीं, बल्कि कुदरत की ताकत थीं, जिन्होंने कहानी कहने का तरीका बदल दिया। उनकी यादें आज भी सिनेमा प्रेमियों के दिलों में ज़िंदा हैं।




