दरभंगा, देशज टाइम्स ब्यूरो। विश्वविद्यालय संगीत व नाट्य विभाग में मंगलवार को सोदाहरण व्याख्यान का आयोजन किया गया। इसमें बतौर वाह्य विशेषज्ञ पटना के हृषिकेश सुलभ व विजयेंद्र टाक मौजूद थे। विषय था, संस्कृत रंगमंच के अवसान के बाद पारंपरिक नाट्य का उदय व नाटक में प्रकाश संयोजन। मौके पर बतौर मुख्य अतिथि ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय के विकास पदाधिकारी डॉ. केके साहु मौजूद थे। कार्यक्रम के आरंभ में सभी आगत अतिथियों नेरा दीप प्रज्वलित कर सोदाहरण व्याख्यान समारोह का उद्घाटन किया। इसके बाद विभागाध्यक्ष प्रो.लावण्य कीर्ति सिंह काव्या ने आगत अतिथियों का परंपरानुसार पाग, चादर व पुष्पगुच्छ देकर सम्मानित किया।
समारोह को संबोधित करते हुए विकास पदाधिकारी डॉ. केके साहु ने ऐसे आयोजनों के उद्देश्य व आवश्यकता पर विस्तृत चर्चा करते हुए लगातार संगीत व नाट्य परंपराओं को मंच पर साकारा करने के लिए संगीत व नाट्य विभाग को साधुवाद दिया।प्रथम सत्र में सोदाहरण व्याख्यान प्रस्तुत करते हुए आगत विशेषज्ञ हृषिकेश सुलभ ने कहा, हर समाज के पास अपना रंगमंच होता है। भारतीय जनजातीय कलाओं में नाटक प्रमुखता से विद्यमान था।
विविधताओं से भरे भारतीय भूखंड पर कलाओं का साम्राज्य था। जब रंगमंच में बोलियों का प्रक्षेपण होता है तो रंगमंच का विस्तार होता है और इस परंपरा का उत्स मिथिला में मिलता है। मिथिला का संबंध दक्षिण भारत से भी है। उत्तर भारत में संस्कृत रंगमंच का वृहद् ग्रंथ नाट्य शास्त्र है जिसे पंचम वेद भी कहा गया है। तमिल में शिल्पदिकारम प्राप्त होता है। उसके बाद ज्योतिरीश्वर का वर्णरत्नाकर लंबे अर्से का लक्षण ग्रंथ है जो संस्कृति के सारे अंशों को छूता है। इसमें नाट्य विषयक अनेक तत्वों का समावेश है। इसमें भाट के साज-सज्जा का भी वर्णन है।
इसके बाद विद्यापति के आगमन के बाद गोरक्षविजय नामक नाट्य पुस्तक प्राप्त होता है परंतु इसी बीच सांस्कृतिक विकास और आदान-प्रदान में असम के शंकरदेव का नाम आता है जिन्होंने मिथिला – वृन्दावन का भ्रमण करने के बाद वापस लौट कर अंकिया नाट जिसे असमिया में झूमरा कहा गया है की रचना की। अंकिया के सभी पुराने स्क्रिप्ट में मैथिली, भोजपुरी व व्रजभाषा का भी सामंजस्य है अर्थात् रंगमंच के पास रंग भाषा होती है, यहां व्याकरण या शुद्धता गौण हो जाती है अर्थात् मंच पर मौन भी मुखर होता है। नौटंकी के दो स्कूल हाथरस व कानपुर पारंपरिक नाट्य के निकटतम अतीत हैं। पारसी थियेटर पर नौटंकी का गहरा प्रभाव है। मिथिला में सर्वाधिक प्राचीन लोक परंपरा कीर्तनिआ है। सीवान, गोपालगंज के पास रसूल नामक अभिनेता का नाम महेंद्र मिश्र और भिखारी ठाकुर से पूर्व आता है। रसूल के जमाने में बच्चे के जन्म के अवसर पर महिलाओं की इच्छा होती थी कि आंचल पर रसूल का नृत्य नाटक करवाया जाए। आज भिखारी ठाकुर के गीत व नाटक तो जग प्रसिद्ध हैं। तत्कालीन समाज के स्वरूप को लेकर गबरघिचोर की सुन्दर रचना भिखारी ठाकुर करते हैं। इस तरह एक दूसरे से जुड़ते हुए अनेक पारम्परिक नाट्यों का उदय होता गया। रंगमंच का अत्यन्त समृद्ध है लेकिन इसकी सुरक्षा अपनी रचनात्मकता से करने की आवश्यकता है।
सोदाहरण व्याख्यान के दूसरे विशेषज्ञ विजयेंद्र टाक ने नाटकों में प्रकाश संयोजन के सम्बन्ध में उपस्थित छात्र – छात्राओं को विस्तृत जानकारी दी। उन्होंने कहा कि नाटकों में दृश्य साफ साफ दिखे , अभिनेता का भाव स्पष्ट हो, इसलिए प्रकाश की आवश्यकता होती है। यह कहानी के कंटेंट को सपोर्ट करता है। प्रकाश व्यवस्था के लिए मंच को नौ भागों में विभाजित किया गया है। दृश्य को रोचक बनाने के लाइट, किसी चरित्र विशेष को दिखाने के लिए ओवरहेड या टॉप लाइट, समय को ध्यान में रखते हुए प्रकाश का चयन, लेड के प्रयोग, रंग के लिए पेपर का प्रयोग, मनचाहे डिजाइन के लिए गो -गो का प्रयोग, डीमर,वाटर इफेक्ट, फ्लीकर आदि को विस्तारपूर्वक समझाते हुए इसकी आवश्यकता व उपयोगिता पर भी प्रकाश डाला। लाइट के ग्राउंड प्लान को विधिपूर्वक सीखाया । यह सोदाहरण – व्याख्यानमाला उपस्थित छात्र – छात्राओं के लिए बहुपयोगी सिद्ध हुआ।