सच मानो तो, मनोरंजन ठाकुर।
कल-तलक/ चुनाव था/ सरकारें थी/ सभाएं थी/ भीड़ था/ कितना शोर था/आज हर तीसरे व्यक्ति में एक्जिट पोल का संक्रमण/अचानक/बदहवास/सबकुछ असहज/अनायास/अनायास-कैसे/कहां से/ ऐसा नहीं होता/ ऐसा सब-कुछ/ सबकुछ होता है/ उस देश में/ जब देश से ऊपर सत्ता का सिंहासन/उसका तख्त खड़ा/बड़ा हो उठे/एक्जिट पोल पर कितने फीसद लोग भरोसा करते हैं/कितनों को भरोसा करना चाहिए/ इस पोल के मायने क्या हैं/पोल करने के तरीके क्या हों/ कैसे हों/ इसके अंदाज/ शक्ल/ सूरत/ और विस्तार में परोसने की जिद में पाठकों/ दर्शकों को कंबल में लपेटे आसमान दिखाने की प्रवृत्ति/ क्या/ फिर से पुर्नर्विचारित नहीं होने चाहिए/ टीवी की पत्रकारिता की जड़ें आज कहां हैं/ मनगढ़ंतता की परकाष्ठा/ हदें तोड़ती एंकर के स्वभाव/ आवाज में तीखापन/ गला फाड़/ युद्ध से भी भयानक होती चुनाव कवरेज/ खासकर एक्जिट पोल की रिपोर्टिंग/ एक्जिट पोल ऐसे दिखीं/ मानो जीत-हार तय हो गया हो/ पूरे स्क्रीन पर/ ग्राफिक्स के जरिए/ जीत-हार/ ये जीते/ वो हारे/ इतने अंतर से हारे/ इतने फीसद इस उम्मीदवार को वोट पड़े/ इतनी सटीक पत्रकारिता/उसके तेवर/ आक्रामक स्वभाव/ आज तक/ हिंदी पत्रकारिता ने नहीं भोगा/देखा/सुना/ तमाम ऐसे सवाल हैं/ जो इन दिनों छनकर बाहर आ रहे हैं/ जो एक्जिट पोल की अस्मिता/ उसकी जरूरत पर प्रश्न खड़ा कर रहे हैं/सीख भी नहीं लेते/ खासकर तब जब बिहार समेत अमेरिकी चुनाव के नतीजों ने साबित कर दिया/ इस एक्जिट पोल के कोई मायने-मतलब नहीं हैं/याद कीजिए/बिहार और अमेरिकी चुनाव/ दोनों कोरोना संकट के दौर में हुए थे/ पूरे विश्व की इन पर नजरें थी/ सो, परिणाम को लेकर भी बहस/गहमागहमी बराबर से था/ ट्रंप और तेजस्वी को लेकर/बयान वीर
अपने तरकश कमोबेश खाली कर चुके थे/ ऐसे में, ज्यादातर एक्जिट पोल फेल हो गए/
कारण/ इसमें महागठबंधन को शानदार/ एकतरफा जीत/ मिलने का अनुमान लगाया गया था/ आखिरकार ऐसा हुआ नहीं/ एग्जिट पोल लोगों के मन की बात को सही तरीके से पढ़ पाने/समझने/भांपने में/ विफल रहे/ कारण, बिहार की जनता में/ अगर/ किसी की मनमर्जी चुनाव में दिखती/ चलती है तो वह है आधी आबादी/इस चुनाव में/इस महिलावादी वर्ग ने/ दिल खोलकर/ नीतीश का साथ दिया/वोट डालने वाली महिलाओं की संख्या/करीब 2 करोड़/ सीधे तौर पर मोदी-नीतीश से जुड़ी/और जिताया भी/महिलाओं में रूझान की/एक खास वजह लॉकडाउन में महिलाओं के बैंक अकाउंट में पैसे ट्रांसफर करना भी रहा/मुफ्त सिलेंडर/मिड डे मील को/ विकास समझने वाली महिलाओं ने एनडीए के आकर्षण उसके मोहपाश में आकर्षित हुईं/नीतीश के खिलाफ Anti Incumbency/ के बावजूद महिलाओं ने जमकर उन्हें वोट किया/ इसके अलावे बिहार और अमेरिकी चुनाव में/ एक वर्ग और दिखा/वह था, साइलेंट वोटर्स/ इनकी भूमिका काफी अधिक थी/साइलेंट वोटर्स ने पहले से ही मन बना लिया था/इसबार फिर नीतेशे कुमार/ सो, हार-जीत बिना देखे वोट पड़े/ नतीजा सामने रहा/ऐसा ही कुछ अमेरिकी चुनाव में भी दिखा था/ इन साइलेंट मतदाताओं ने मन की बात छुपाई/ जमकर वोट डाले/ नतीजा/ सारे अनुमान गलत साबित हो गए/ अगर एक्जिट पोल सही हो जाते तो…/
फिर इस देश में किसकी सरकार बन रही है/इसके लिए सरकार को चुनाव पर करोड़ों खर्च करने ही नहीं चाहिए/ उससे बहुत कम पैसों में तो Polling Agency ही Survey करके ये बता देंगी/ जनता किसको पसंद करती है/लेकिन,लोकतंत्र में ऐसा होता नहीं है/और जो होता है/ वह दिखता नहीं है/और जब दिखता है/तब सब-कुछ बदला-बदला नजर आता है/लड्डू-रसगुल्ले सब बेकार हो जाते हैं/ उदास पंडाल फिर बहुत कुछ कहने लगते हैं/खैर यहां बात महिलावादी की हो रही है/ आज की स्त्री कैसी हो?/ निसंदेह, उसमें अस्तित्व के स्वीकार का आग्रह विकसित हुआ है/ वह मुक्ति के पुराने आइकॉन को तोड़, भोग्या या यौनिक वस्तु के मायने से इतर एक समग्र इकाई, एक मनुष्य, नागरिक के रूप में पहचानने का आग्रह करती/ हीन भावना से उबरती/आत्मविश्वास विकसित करती/स्वावलंबी होकर उभरी/ दिखती, मिलती है/ सुखद यह/ दक्षिण भारत के मंगलौर-कुद्रोली के एक शताब्दी पुराने श्री गोकर्णनाथेश्वर मंदिर में विधवा लक्ष्मी और इंद्रा
पुजारी बनती हैं/ खबर, विधवाओं को हाशिए पर रखने वाले पुरुषिया रूढि़वादी समाज पर एक तमांचा से कम नहीं/ शंखनाद की पहली किरण लिए उम्मीद यही/
इन महिलाओं की नियुक्ति किसी क्रांति से कम नहीं/ शायद, नाइजीरिया के जमफारा प्रांत की महिलाओं के लिए एक नई सुबह का अहसास भी जहां कि विधवाएं शादी करने की चाहत पाले गुसाउ में मार्च निकालती जुलूस लिए/ खुद के लिए एक सुरक्षित जीवनसाथी चाहती/ मिलती हैं/ दु:खद यही/ परंपराओं के आगे बेबस उनकी मजबूरी/ लाचारी/ धार्मिक पुलिस के आगे पड़ा उनका ज्ञापन/ सरकार से मदद मांगती, इस उम्मीद में/ उनकी हाथों की ओर सहायता के कोई हाथ बढ़ेंगे/ इसमें शक/ सदियों पुरानी जर्जर, मर्यादाविहीन पागलपन के खिलाफ सुरक्षा का नस्तर उठाए…एक नए अर्थ/ अनुराग के साथ कहती/ सुनती/ चिल्लाती महिलाएं/ वहीं खड़ी हैं जहां .. समवेत प्रयास कटघरे में खड़ा/ जद्दोजहद से रू-ब-रू/अरदास में जुटा/ जिंदगी की जद्दोजहद से बाहर निकलने को छटपटाती/ काला-जादू/ तंत्र-मंत्र/ झाड़-फूंक के हवन में जलती/ प्रसाद के बहाने अपना अंतरंग बांटती/ मजबूर मिलती है/ आखिर कब तक एक स्त्री/ पंडाओं/ मुल्लाओं/ पादरियों से लेकर आम लोगों के हाथों/ धर्म/ पाप-पुण्य/ स्वर्ग-नरक/ भाग्य/ पुनर्जन्म/जन्नत-दोजख/ कयामात/ हैल्ल-हैवन/ नस्तर या ताकत का हौवा दिखाकर लुटती रहेगी/
एक बिस्कुट का प्रचार है हल्ला बंद/ यह टीवी पर दिखता है/ उस टीवी पर जिस पर इस बार के पांच राज्यों चुनाव हुए/ और उसके परिणाम भी आ चुके/ जीत-हार का फैसला इन टीवी वालों ने कर दी/ बिल्कुल खुलकर/ बिना ताम-झाम/
गाजे-बाजे-शोरगुल के/ मगर, शोरगुल तो है/ वह उन बिस्कुट की मानिंद क्रैडब्ररिज तो नहीं है/ मगर सीधा-सपाट मेरी गोल्ड की तरह गोल भी नहीं/ इसमें, लताड़ है/ आपसी खींचतान है/ उठा-पटक है/ तोड़ है/ पुराने घर में वापसी है/ नए घर की तलाश भी/ इसी ऊहापोह में पक्ष भी है/ विपक्ष भी/ फरक/ कहीं, किसी में नहीं दिखता/ साफ कहते नहीं, पूछने पर मुंह फेर लेते हैं/यही इसबार का चुनाव है बिल्कुल मौका-परस्त/ मुस्कुराते नतीजे/ उसका पोस्टर/ विपक्ष को बुझा देने की साजिश की फरोशी भी है/ उबारने वाला लॉलीपॉप भी/ खुलकर बिस्कुट खिलाते/ ललचाते/ बिना यह सोचे/ देश का क्या होगा/ राजनीति किस तरफ आगे बढ़ेंगी/ कौन किसका साथ देगा/ कौन-किसके साथ जाएगा/ चुनाव आते–आते कितने कोण बनें/ जो फिलहाल, विधायक हैं भी उनके बदलते सुर कहते हैं/ बहुत कुछ नया होने वाला है/
यानी, एनडीए और महागठबंधनों में अभी भी बहुतेरे गांठ हैं/ उस गांठ में घाव भी है/ ऑपरेशन करने की रणनीति भी/ कहीं भाजपा तैयार है तो सपा नहीं/कहीं कांग्रेस तैयार है तो आप नहीं/कहीं बीजेपी है तो वीआईपी नहीं/वीआईपीट की भी जोड़-तोड़ की बेला है/ कोई जा चुके हैं/ कोई लाइन में लगे हैं/ ऊब-डूब की स्थिति है/ किसी भी गठबंधन में कहीं कोई सहमति नहीं/ कयास यह भी/कहीं कुछ नया मिलकर एक अलग उभार ना उभार दे/खासकर/यूपी चुनाव के बाद/बिहार की विसात बदलेगी/नए पिच पर/नए खिलाड़ी उतरेंगे ही/यह बिल्कुल तय हो चुका है/यहां भी उसी महिलावाद की हद है/जिसके जद में यूपी में मल्लाहों की नाव चुनावी समर में उतरी/फिलहाल उस नाव में कई छेद जन्म ले चुके हैं/उस छेद से ही नया विस्तार लेने वाला है/बिहार की राजनीति करवट के मुहाने पर है/ इसमें एक-दो और की इंट्री संभव है/ फिलहाल, चुनावी समीकरण रैपर में बंद है/मगर, उसकी शक्ल सबसे अधिक बिहार में दिखाई देगी यह भी तय है/ जीते तो चटक कमतर/हार गए तो मुरझा देने वाली ताकत पहले से बड़बोलापन में सामने/ देखना है, फ्लेवर का चटक स्वाद क्या निकलेगा/
मगर, हालात यही है/ माना, स्त्रीत्व का मसला, महज दोषी को सजा देने का आज नहीं रहा/ मुद्दा तंत्र में कराहते उस जन का है/ जो देश का मान नागरिक होने के बाद भी महज एक स्त्री होने का दर्द/ पीड़ा/ दंश से उपेक्षित/ ग्लानि से लथपथ मिल रही/ देह/आत्मा/ आग/ पानी तक के बीच चिंताओं व चुनौतियों को जीती मिलती/ वर्तमान यही है/आज भी/ स्त्री एक सुरक्षित माहौल को लालायित है/ खुद की अहमियत/ अस्मिता/जरूरतों को समझने वाली भाषा से संवाद करने में भी झिझकती/ वह स्त्री/ इंसान की जिंदगी में समय की शिला पर यथावत खड़ी है/ एक संभ्रात नौकरानी की
भूमिका तलाशती/ घरेलू कामों में उलझती/ बच्चों को संरक्षित/ सुरक्षित करती/ खुद बोझिल होती/ एक स्त्री कब तलक सहती/ उपेक्षित होती रहेगी? / तमाम वर्जनाओं के बीच/ वंचित समाज से घिरी/ लिंग विभेद/ अज्ञान और अंधविश्वास के
बीच से बर्बर परंपराए तोड़ने को आमादा/ मुक्ति की भीख मांगती एक स्त्री/ समाज के जिम्मेदार लोगों की संवेदनहीन सोच से बाहर निकलेगी भी तो कैसे? एक स्त्री की प्रतिमा उसी उत्तर प्रदेश की जमीं को तलाशती रही/उस जमीं को/जिसे अगर देश कह दें/तो यह विश्व का पांचवा सबसे बड़ा देश हो/बन सकता है/मगर/वहां भी एक स्त्री अपनी प्रतिमा की जमींन खोजती उसी नाव पर दिखी जहां से खाली होती तरकश और बिहार में भरती तीरों के बीच यत्र नार्यस्तु पूज्यते… कहने की जरूरत शायद इस देश को नहीं/
सवाल वहीं/ ऐसी मानसिकता की जड़ें कहां हैं/ देश के तंत्र/ शिक्षा पद्धति/राजीनिक संस्करण/देहवाद/उस संस्कृति/उसी मान्यता के ईद जहां परवरिश या फिर कुंठित पुरुष मानसिकता में/स्त्री आज भी दबी/जुबां/बंद दरवाजे के भीतर ही सिसकती मिलती/ जिसकी टिप्पणियां सामाजिक अंत:करण में मौजूद पितृसत्ता के अलग-अलग आयामों को टीआरपी के मौजूदा होड़ में टीवी चैनलों की स्क्रीन पर फिसलती जबान के रूप में प्रत्यक्ष सामने दिख रहा/ दरअसल, समाज जिसे संस्कृति बता रहा है/ असल में स्त्री को उससे ही टकराना है/ बलात्कार जिस किस्म के आक्रामण हैं/ वजूद के अतरंग तक को उधेड़/ और फाड़ कर फेंक देने का कृत्य एक स्त्री के लिए जितना संघातकारी/ शायद पुरुषों को उस मानसिकता/ दिमाग तक/ पहुंचने में वक्त का सहारा लेना पड़े/
स्पष्ट है/ स्त्रीत्व, भाषा केवल संपर्क, शिक्षा या विकास का माध्यम न होकर व्यक्ति की विशिष्ट पहचान है, उसकी संस्कृति, परंपरा और इतिहास का कोष है/ ऋषियों ने नदियों को माता कहा। धरती को माता कहा। आकाश को पिता कहा/ ऐसे रिश्तों की आंच में तमाम तर्क पिछड़ते रहे/ विज्ञान साथ-साथ चला/ हमेशा दाएं/ तर्क दर्शन समानांतर चला हमारे बाएं। ऊपर/ आकाश पिता की छाया और संरक्षण/ नीचे धरती माता का आधार/ सामने प्रकृति के रहस्य और पीछे हमारा इतिहास बोध/ स्त्रीत्व झाग कोई बौद्धिक कृत्य नहीं है/ यह झाग हृदय से हृदय का संवाद है/ स्त्री इकाई और अनंत का संवाद भर है/
अमावस्या से पूर्णिमा हो जाने की अभीप्सा यही स्त्री है/नारीवाद में शब्द का कोई महत्व नहीं/ यहां अंतस की भाषा ही स्त्रीमय है/ विराट से मनुहार है/ निःशब्द वाक्य है/ मौन का संगीत वही एक स्त्री है/ म्यूजिक ऑफ साइलेंस के बीच फंसी वही एक स्त्री निःशब्द ध्वनि है/ निधूर्म अग्नि है/ वहीं आकांक्षा रहित मांग है/ सामने महिला दिवस है/ और महिला दिवस पर समाजिक संगठन के साथ-साथ लोग महिलाओं के उत्थान और उनकी सुरक्षा पर बड़ी-बड़ी बातें करते/उसी मंच पर हैं/जहां महिला दिवस के मायने तलाशती वहीं पर एक स्त्री अपने अधिकार के लिए महिलाओं के उत्थान और उनकी सुरक्षा की याद करती एक साल से टकटकी के बीच खड़ी है, जहां बिहार के शेखपुरा में नौ साल की दो बच्चियों के साथ छह बच्चे सामूहिक दुष्कर्म की नीयत साफ करते दिखते हैं। हद यह, इन दुष्कर्म में लिप्त बच्चों की उम्र महज बारह के करीब है जो मोबाइल की लत में देह की सुंगध तलाशते भटक रहे। सच मानो तो…!