बिहार रोजगार का भंडार अपने सीने में दफन किए हुए है। अगर, उस सीने को थोड़ा टटोला जाए, मंशा साफ हो तो बिहार तरक्की की राह पर खुद-ब-खुद दौड़ पड़ेगा। बस, नीयत साफ हो, नियति भी स्पष्ट हो। किसान मालमाल थे और फिर हो जाएंगें। रोजगार की कमी नहीं थी, फिर कोई कमी नहीं रहेगी।तस्वीरें जो हम दिखा रहे हैं, उन तस्वीरों के बारे में कुछ भी कहें उससे अधिक आप खुद समझते हैं। सरकार भी समझती है। बस, इन तस्वीरों पर पड़े धुंध को साफ करने की जरूरत है। संजय कुमार राय की यह रिपोर्ट
जर्जर कायों में फिर से जान फूंकने की जरूरत है ताकि हम फिर से देश में अगुवा बन सकें। बिहार तरक्की की राह में बेलगाम दौड़ सके। हम गर्व से कहते थे “हम मिथिलावासी हैं”। लेकिन, इस हरे भरे रोजगार वाले इलाकों में सबकी नजर लगी और वह नजर भी किसी और का नहीं अपनो का ही था।राजनीति में वर्चस्व था। पढ़े-लिखे लोग भी ज्यादा थे। बड़े बड़े पदों पर भी लोग आसीन थे। संपन्नता से भरपूर मिथिला का यह इलाका विपन्नता की ओर चला गया। आज के दिनों में सबसे पिछड़ा इलाका मिथिलांचल बनके रह गया। इस इलाके के पिछड़ापन का अगर कोई जिम्मेदार हैं तो बस राजनीति हैं।
आप गिनती करेंगे तो आपको भी आश्चर्य होगा। इन मिलों के बंद होने का श्रेय सिर्फ और सिर्फ पूर्व के राज्य सरकार पर जाता है। वर्तमान सरकार की तो रुचि ही नहीं है। पूर्व की सरकारों ने इसे चलाने के बजाए राजनीति रोटी सेकी और मुद्दा बनाया। राजनीति रोटी सेंकती रही और अपना जेब भर्ती रही।मिथिलांचल के इन मिलों की बात करें तो लोहट चीनी मिल, सहरसा पेपर मिल,अशोक पेपर मिल,कटिहार जुट उद्योग, भागलपुर का सिल्क उद्योग, पूर्णिया वनमंखी शुगर मिल, रेयाम चीनी मिल, सकरी चीनी मिल, रामेश्वर जुट मिल, सीतामढ़ी चीनी मिल, चंपारण चीनी मिल आदि थे।यही नहीं बरौनी का रिफाईनरी और हिंदुस्तान फर्टिलाइजर भी था। कई ऐसे मिल थे जो चालू रहता तो आज के दिनों में बिहार का यह इलाका स्वर्णिम अक्षरों में लिखा जाता।लेकिन, यहां के राजनीतिज्ञों की राजनीति ने सबको ठप कर दिया। राजनीति के क्षत्रछाया में पल बढ़ रहें कामगार मजदूरों ने इसे राजनीति का अखाड़ा बना दिया। इस कारण सभी मिले बंद हुईं। कुछ मिलों का जीर्णोद्धार भी करने की कोशिश की गई लकिन कई नेताओं की मंशा बस अवैध उगाही तक सीमित थी।
इस कारण मिल चलाने के बदले मिल का स्क्रेप भी बेचकर चलते बने। अगर सरकार की मंशा दुरुस्त हों तो आज भी इन मिलों को चलाया जा सकता हैं। किसानों की हालत में सुधार लाया जा सकता हैं। पर ऐसा कुछ भी वर्तमान परिस्थितियों में नहीं हों सकता और इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। इन मिलों पर सरकार ने अधिपत्व तो जमाया लेकिन जमीन को सरकार ने अधिग्रहण नहीं किया था। राज दरभंगा के मैनेजर पवन दत्ता का कहना है कि सरकार और राज दरभंगा के बीच एक एकरारनामा बना था। इसमें वर्णन हैं कि महज एक रुपया में सरकार को दरभंगा राज की ओर से संचालित मिल को दे दिया गया था। इसमें एक बात अहम है जो पत्रक में लिखा भी है कि जिस दिन सरकार मिलों को चलाने में अक्षम हुई तो ऐसे मिलों को सरकार दरभंगा राज को पुनः सौंप देगी, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। मिले तो बंद हों गईं, लकिन सरकार ने दरभंगा राज की और से संचालित मिलों को वापस नहीं किया।