फरवरी के आते ही प्रेम जैसे मौसम में छा जाता हो- ऐसा मात्र वैलेंटाइन्स डे के भारत में प्रचलन से नहीं, बहुत पहले से होता आया है. प्रायः मौसम का जायका ही प्रेम और प्रीत से भरा होता है वसंत में. जब शीत लहर से सिकुड़े अंग ऊनी पर्तों के भीतर से निकलने लगें ,जब बर्फ और शीत की चादर की तहों से रंग बिरंगे फूल लहराने लगें, जब दिन भर कुहासे से भीगा सूरज फिर ज़रा ज़रा दहकने लगे और ठंढ से किटकिटाते दांत गुनगुनाने लगें तो प्रेम भी उछाल कैसे न लेने लगे ….बाह्य मौसम अंतर्मन को प्रभावित तो करता ही है न! प्रेम शब्द सुनते ही साहित्य के अनेकों रचनाएँ, चरित्र मन में कौंधने लगती हैं–आखिर प्रेम में भी मापदंड तो तय करती हैं ये चरित्र. कभी दिनकर की ‘उर्वशी’ जो प्रेम और सौंदर्य का काव्य है और प्रेम और सौंदर्य की मूल धारा में हमारे जीवन में प्रेम को एक प्रकार से परिभाषित करती है , तो कभी उपमा –अलंकारों से लैस कालिदास का प्रेम, और सौंदर्य और अभिजात्य से परिपूर्ण “शकुंतला”. राधा –कृष्ण के पारलौकिक प्रेम की तो बात ही क्या! अधिकांश प्रेम पर आधारित काव्यों में स्त्री की एक अहम् भूमिका रही है , और जब भी हम इन साहित्यों को पढ़ते हैं, इन चरित्रों को समीप से जानने की कोशिश करते हैं, हम देखते हैं कि यहाँ नैसर्गिक सौंदर्य की ही बात हो रही है- कृत्रिमता से कोसों दूर! इनमे एक और ख़ास बात की उस युग में जब औरतों की स्वतन्त्रता पर कोई बहस नहीं थी , उनके अस्तित्व पर कोई ख़तरा नहीं था , स्त्री एक अत्यंत सुदृढ़ चरित्र बनकर ही सामने आयीं, वो बस एक नायिका नहीं , अपितु प्रेम के दो किरदारों में एक अधिक सशक्त चरित्र बन कर अनेक आयामो को लिए उभर कर आई … इतनी सशक्त कि वो मात्र सौंदर्य की मूरत नहीं, तेरहों कला से परिपूर्ण , विद्या की धनी ,स्वाभिमान से ओतप्रोत एक अत्यंत गरिमामयी चरित्र बनकर सामने आती हैं. प्रेम में लिप्त होकर भी इनके किरदारों में कभी स्वाभिमान की कमी या अपने कर्तव्यों और अधिकारों के प्रति उदासीनता कतई नहीं दिखती, प्रेम में बिलकुल मर्दों के साथ बराबर की हिस्सेदार पाई गयीं, हमेशा अर्धांगिनी बनी ही पायी गयीं. ऐसे में नारी ,मैथिलि शरण गुप्त की पंक्तियाँ,-“नारी तुम केवल श्रद्धा हो , विश्वास रजत नग पग तल में | पीयूष स्रोत सी बहा करो , जीवन के सुन्दर समतल में….” के विपरीत एक हद तक ही “केवल श्रद्धा” और पीयूष का झरना हैं .. वो इन सब के साथ वो सब हैं जो उनके प्रेमी हैं, वैसी ही हैं जैसा उनके साथ उनके जीवन के सहचर हैं. तभी ऐसी स्त्रियों को बराबर का मान मिला, सम्मान मिला, साहित्य में, इतिहास में और हम सब के मानस पटल पर भी.
फ़रवरी के प्रेम से सराबोर मलयांचल बयारों के बाद आता है मार्च का महीना – महिलाओं का महीना, महिला सशक्तिकरण का सांकेतिक महीना. आज जब प्रेम और विवाह में पुरुष और स्त्रियों के ताल मेल का इतना अभाव है, जब प्रेम और विवाह की परिभाषा सहिष्णुता , सहजता से परे है , जहाँ भौतिकता नैसर्गिकता को धकेल सर्वोच्च स्थान पर बैठा है, स्त्री और पुरुष दोनों ही अपने मौलिक गुणों को अस्वीकार करते दिख रहे , जहाँ पुरुषों का पुरुषोचित सौन्दर्य तथा स्त्रियों के स्त्रियोचित सौन्दर्य क्षीण होते जा रहे हैं , वहां संसर्ग , रिश्ते , प्रेम और विवाह के परिभाषा भी स्वाभाविक है बदलते जा रहे. क्यों स्त्री का स्थान आज भारत और विश्व में बदल गया, क्यों आज नारी को जो शुरू से सर्वोपरि स्थान मिला था उसके लिए उन्हें गुहार लगानी पड़ रही है ? आज के आधुनिक युग में भी नारे लगाती औरतों के स्वतंत्रता की मांग , समाज में एक विशेष स्थान की मांग , तलाक और टूटते रिश्तों की दिनानुदिन बढती संख्या, एक बार फिर मुझे साहित्य की तरफ खींचती है क्योंकि आधुनिकता ने तो रिश्तों की मर्यादा ही समाप्त कर दी.जब विज्ञानं हार जाता है, साहित्य उसे संभालता है. बदलते हुए परिवेश में विचलित होना स्वाभाविक है ऐसे में पीछे मुड़कर अपने धर्म, अपने साहित्य , अपने लोक गीतों में ही संभावनाएं दिखाई देने लगती हैं. परिवर्तन भले ही परंपरा को समेट ले परन्तु परंपरा प्रत्येक युग में जीवित रहती है , रहनी भी चाहिए क्योंकि ये ही हमें आधार प्रदान करती है. इसलिए मुझे मार्च के महीने में यानि औरतों के लिए समर्पित महीने में,शिवरात्रि के महीने में एक बार फिर साहित्य और लोक गीतों के जरिये, शिव स्मरण होते हैं. शिव, जो प्रेम और सौंदर्य की सर्वोच्च प्रतिमूर्ति हैं, और शिव- पार्वती की जोड़ी प्रेम, विवाह,और विश्वास का एक अतुलनात्मक उदाहरण.
शिव को याद करते ही स्मरण आता है महाकवि विद्यापति का, जिनकी रचनाएँ छः शताब्दी गुज़रने के बावजूद आज भी प्रसांगिक है। उनकी रचनाओं ने लोक जीवन के एक प्रमुख पक्ष को आधार बनाकर अनेकों सामजिक संरचना तथा संचालन में इसके महत्व इत्यादि बिन्दुओं पर मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से समझने एवं उसका विश्लेषण करने का प्रयास किया है। विद्यापति के गीतों में वर्णित सामाजिक कुरीतियां एवं जनमानस के आम जीवन मे फैली कुरीतियों ने हमें सोचने पर विवश कर दिया है। “महेशवानी” के अंतर्गत विद्यापति के ऐसे कई लोक गीत हैं जो शिव और पार्वती के किस्से को आम लोगों में प्रचलित करता है और सुनने-पढने वाले इसे अपने मनोभाव और मानसिक, मनोवैज्ञानिक आवश्यकता के अनुसार उसे ग्रहण करते हैं, उनका विश्लेषण करते हैं. ऐसा ही एक गीत जो मुझे व्यक्तिगत रूप से हमेशा से झकझोड़ता रहा है वो है- “आजु नाथ एक व्रत महा सुख लागल हे। तोहे सिव धरु नट भेस कि डमरू बजाबह हे। । तोहे गौरी कहैछह नाचय हमें कोना नाचब हे।। चारि सोच मोहि होए कोन बिधि बाँचब हे।। अमिअ चुमिअ भूमि खसत बघम्बर जागत हे।। होएत बघम्बर बाघ बसहा धरि खायत हे।। सिरसँ ससरत साँप पुहुमि लोटायत हे ।। कातिक पोसल मजूर सेहो धरि खायत हे।। जटासँ छिलकत गंगा भूमि भरि पाटत हे।। होएत सहस्रमुखी धार, समेटलो नही जाएत हे।। मुंडमाल टुटि खसत, मसानी जागत हे।। तोहें गौरी जएबह पड़ाए नाच के देखत हे।। भनहि विद्यापति गाओल गाबि सुनाओल हे।। राखल गौरी केर मान चारु बचाओल हे ”( कवि विद्यापति) कवि के इन पंक्तियों में पार्वती शिव से कहती हैं कि आज एक महान व्रत का मुहूर्त है और उन्हें अथाह सुख की अनुभूति हो रही है ; आप नटराज का वेष धारण कर डमरू बजाएं और मुझे नृत्य दिखाएँ . गौरी के इस आग्रह को सुन शिव उनसे कहते हैं कि वो विवश हैं क्योंकि नृत्य के फलस्वरूप संभावित चार खतरों से वो ख़ास कर चिंतित हैं जिससे सृष्टि का बचना मुश्किल हो जायेगा . प्रथम कर्म में नृत्य से उनके सर पर चन्द्रमा से जो अमृत बूंदें टपकेंगी , उससे उनका बाघम्बर जीवित हो, बाघ बन जायेगा और उनके बैल नंदी को खा जायेगा . दुसरे , नृत्य के क्रम में उनकी जटाओं में लिपटे सर्प भूमि पर गिर जायेंगे और कार्तिकेय के पाले हुए मयूर उन्हें मार डालेंगे. तीसरा, नाचते वक़्त उनकी जटा से छलक कर गंगा भी नीचे गिर पड़ेंगी और उनकी सहस्र धाराएं बह निकलेंगी जिन्हें संभालना बहुत मुश्किल हो जायेगा. चौथे, नाचने से उनके गले में पडा मुंडों का माला भी टूट कर बिखर जायेगा और सारे प्रेत जीवित हो उठेंगे जिससे भयभीत हो पार्वती ही डर कर भाग जाएँगी तो फिर उनका नृत्य भला देखेगा कौन. विद्यापति अंत में कहते हैं कि नटराज फिर भी अपनी पत्नी का मान रखते हुए नृत्य करते हैं और सारे संभावित खतरों को संभाल भी लेते हैं ! विद्यापति के शिव इस गीत में देवों के देव नहीं बल्कि मनुष्य रूप में एक साधारण पति हैं जो अपनी पत्नी के अनुरोध पर विवशताओं को सँभालते हैं; उसकी मान की रक्षा करते हुए नट रूप धारण कर नृत्य दिखाते हैं और पत्नी की इच्छा का सम्मान करते हैं. इस लोकगीत में शिव एक आम पति हैं और गौरी एक पत्नी और इस रूप में अगर हम इस गीत का विश्लेषण करते हैं तो जो सामने आता है वो है स्त्रियों का पति के समकक्ष स्थान, पति के ह्रदय में उनके लिए सम्मान, पत्नी की इच्छा पूर्ति पति के लिए कर्त्तव्य बन जाना और सर्वप्रमुख ये कि यदि पति और पत्नी में तारतम्य रहे तो संसार की सारी विवशताएँ धूमिल पड़ सकती हैं, विभत्सता एक अभूतपूर्व रम्यता में बदल सकती है! जैसे हरेक संस्कृति के केंद्र में एक जीवन दर्शन होता है, वैसे ही प्रत्येक साहित्य के मूल में भी एक जीवन दर्शन होता है; जैसे-जैसे साहित्य आगे बढ़ता है, हमारा जीवन दर्शन परिवर्तित होता जाता और दर्शन के परिवर्तन के साथ मानव संवेदनाएं परिवर्तित होती जाती हैं . युग परिवर्तन के साथ महिलाएं कला-कौशल में निपुण होती जा रही हैं, ज्ञान-विज्ञान में किसी से भी पीछे नहीं, पर फिर भी मर्दों के मुकाबले उनकी सफलता आंकड़ों में कम ही है तथा औरतों पर अत्याचार के उदाहरण या लैंगिक समानता में अभाव आज भी मौजूद है . इसलिए मार्च का महीना महिला सशक्तिकरण का सांकेतिक महिना अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मनाया जाने लगा . ऐसे में लोक गीत और साहित्य हमारे प्राचीन मूल्यों को , मानव संवेदनाओं को, फिर से जागृत और स्थापित करने में सक्षम हैं. स्त्रियों और पुरुषों को एक तरफ उनकी हद और उनकी असीमता और स्त्रियों को उनका योग्य स्थान दिलाने में भी साहित्य ही सहज और सुलभ माध्यम बन सकता है!
(| डॉ. तूलिका मिश्रा | एपेक्स कॉलेज, काठमांडू, नेपाल की गुणवत्ता आश्वासन की प्रमुख हैं।इन्हें प्रोफेशनल भूमिका के साथ-साथ लेखन, कविता, और चित्रकला में रुचि है| वह एक उत्साही अंग्रेजी और हिंदी साहित्य की पाठक हैं। |)