मई,6,2024
spot_img

मत भूलो ए-हिंदी दिवस को महज औपचारिक समझने वालों…,हिंदी दिवस पर DeshajTimes.Com विशेष, Manoranjan Thakur के साथ

spot_img
spot_img
spot_img

भाषा न बिगड़ती है न सुधरती है। वह सिर्फ बदलती है। इसमें नए विस्तार, नई चीजें,  नए उपकरण, नई तकनीक, नए संचार माध्यम जुड़ते रहते हैं। यह बदलाव हमारी, समाज और बाजार सबकी जरुरत है। बाजार भाषा का विस्तार करता है,ज्यादा ग्रहणशील बनाता है।

हिंदी इससे इतर एक शुद्धतावादी के लिहाफ में खुद को जकड़े खड़ी है। लिहाजा, शुद्धतावादीकरण ने इसका बोरिया-बिस्तरा बांधे एक कोने में पटक, एकाकी छोड़ दिया है। जहां, एकदम सादे लिबास में भयावह मन:स्थिति के साथ कमजोर, हताश खड़ी, दिखती, मिलती है हमारी, आपकी सबकी हिंदी। फलसफा, बौद्धिक वर्ग ने हिंदी को कृत्रिम, अस्वभाविक, संस्कृत-बहुल, दुर्बोध कहकर खुद को इससे अलग-थलग, दूर एक बस्ती बसा ली है।

हिंदी का मौजूदा परिवेश विचार युक्त विमर्शों, सपाट द्वंद्वहीन कोलाहलों,  इन्हें यौनेत्तेजक तीव्रता से प्रसारित करने वाले मठाधीशों से गजमगज है।हिंदी को प्रतिष्ठित, मर्यादित,जन-जन तक पहुंचाने की कशमकश के बीच इसके दिवस के स्वागत के लिए कहीं कोई फुर्सत नहीं। ऐन मौके पर, देश की शिक्षा संस्कृति के बाजार पर अंग्रेजीयत का सिक्का, हमारी औपनिवेशिक गुलामी हमें जकड़कर नष्ट कर रही।

साहित्य, कला, ज्ञान-विज्ञान किसी भी क्षेत्र में मौलिक चिंतन का अभाव हमें उस दिवस से जोड़ने के एवज में कन्नी काटता, टूटता, दूर करता ज्यादा दिखता चला गया जिसे कभी उत्सवी टेसू के गाढ़े-गाढ़े रंग देने की जरुरत थी या महसूस हो रही।

सामाजिक संवाद की भाषा, हमेशा से आंदोलनों की बोली हिंदी की पूरब से पश्चिम। उत्तर से दक्षिण तक फैली मिठास ने उन प्रदेशों को भी अपना बना लिया, जहां राजनीतिक तौर पर हिंदी को छलनी करने, एक विरोध का माहौल बनाने की कोशिश होती या हो रही।

जाति, संप्रदाय, धर्म के बंधनों को तोड़ती इसकी लिपि के बाद भी हिंदी की याद हमें तब आती है जब चौदह सिंतबर आता है। हम हिंदी पखवाड़ा का आयोजन, कुछ साहित्यकारों-मीडिया कर्मियों को बुलाकर उन्हें क्षणिक सुख, संतुष्ट कर चोंचलेबाजी में पैसे बर्बाद कर अपनी जवाबदेही, प्रतिबद्धता, ईमानदार कर्तव्य से इतिश्री कर लेते हैं। सत्ता से अधिक लोकसत्ता की भाषा के बावजूद हिंदी की कोई तकनीकी शब्दावली आज तक विकसित नहीं कर सकने की जख्म हलाहल लिए।

वर्षों तक, हम जिस गुलाम परिवेश में रहे उसका असर, कसर, खामियाजा आज तक कंधे पर ढोते,उठाते। हिंदी की हीन मानसिकता को जिस पीढ़ी ने पूर्वजों से पाया और उसे ही उत्तराधिकारी के रूप में आगे की पीढिय़ों की ओर धकेल, उकसाते, परोसते, बिल्कुल पिछलग्गू की शक्ल में बढ़ाते रहे।

बीच-बीच में सालाना जश्न के तौर पर हिंदी दिवस का आना-जाना महज झुनझुने बजाने सरीखे रहा है। झुनझुने बदलते रहते हैं। बजाने वाले भी बदलते हैं। बस, मकसद नहीं बदलता। उद्देश्य, प्रयास यही कि ध्यान सवालों पर न जाए। भूले रहें, भूले ही रहें।

यह भी पढ़ें:  Darbhanga New Delhi Superfast Train News| 108 km की रफ्तार में दौड़ रहीं दरभंगा-नई दिल्ली सुपरफास्ट ट्रेन...घिर गई आग में... बनीं The Burning Train?

कारण, बजाने वाला परिदृश्य से बाहर झांक, निकल जाता है। वहीं बजाते रह जाने वाला भ्रम में यही समझता वही बजाते आ रहा है। हालात, कमतर हिंदी दिवस के साथ यही है। कौन मना रहा? किसे मनाना चाहिए? इसकी समझ, जरूरत, इसके स्वरूप, पहुंच, स्थान, मर्यादा, बंदिशें, एकाग्रता की चिंता कहीं किसी को नहीं। स्वाधीन भारत के बाद हिंदी को लेकर एक अलग उत्साह था लोगों के जेहन में। जद्दोजहद के बाद संसद ने भारत की तमाम भाषाओं के रहते हिंदी को अंग्रेजी के स्थान पर राजभाषा के रूप में स्वीकार किया।

ह कहते, अंग्रेजी तब तक जारी रखा जाए जब तक हिंदी स्वयं समर्थ न हो जाए। लेकिन पिछले तेरह सालों में हुआ क्या? देश में आर्थिक व राजनीतिक विकास हुआ भी तो हिंदी के बगैर अंग्रेजीयत का वर्चस्व पूर्ववत कायम किए ही। नतीजा, हालात में गिरावट यहां तक आती चली गई कि साहित्य-संस्कृति, ज्ञान-विज्ञान के सभी क्षेत्रों में एक अनुवादजीवी
संस्कृति पनप गयी।

हिंदी को दरकिनार करते बौद्धिक विमर्श व विविध ज्ञान क्षेत्रों में यहां तक कि प्रशासनिक व तकनीकी क्षेत्रों में मूल लेखन की भाषा बनाया ही नहीं गया या उसे बनने, पनपने ही नहीं दिया गया।

हिंदी में काम-काज की संस्कृति के विकास के मद्देनजर फंक्शनल इंग्लिश की तर्ज पर प्रयोजनमूलक हिंदी के पाठ्यक्रम चलाए गए, लेकिन कामकाजी मौलिक सोच का विकास नहीं कर ज्ञानानुशासनपरक योगदान देने के बजाए हिंदी की तमाम खामियों को गिनाकर आज का नवधनाढ्य वर्ग और कॉरपोरेट जगत अंग्रेजी को महिमा मंडित करते यह भूल गया कि अमेरिका और इंग्लैंड से हमारा काम होने वाला नहीं। आज का बाजार चीन, जापान और फ्रांस का है जहां अंग्रेजी नहीं बोली जाती।

दुनिया के नक्शे पर गौर करें तो अब जिसे गरज होगी हिंदुस्तान में आकर बाजार करने की उसे हिंदी सिखनी ही होगी। मत भूलो ए हिंदी दिवस को महज औपचारिक समझने वालों, कभी अंग्रेज भी अपने अधिकारियों को हिंदी सिखाने पर जोर देते थे।

इसका गवाह फोर्ड विलियम कॉलेज की स्थापना है। सरकार को भी आज वही दृष्टि
अपनानी होगी। कारण, देश ने पहले हिंदी को राष्ट्रभाषा माना। फिर राजभाषा का दर्जा दिया और अब ये संपर्क भाषा भी नहीं रह गई है। वैश्वीकरण व उदारीकरण के दौर ने हिंदी को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया।

यह भी पढ़ें:  UP Lok Sabha Election News| उत्तर प्रदेश में तीसरे चरण की वोटिंग से ठीक पहले सपा की नई चाल, प्रदेश अध्यक्ष बदले

हिंदी बोलना अब पिछड़ेपन की निशानी बनता जा रहा है। अंग्रेजी के साथ आज भी प्रतिष्ठा जुड़ी है। ठीक वैसे ही, हिंदी ने एक पीढ़ी पहले तक मातृभाषाओं के साथ भी यही किया जो अब अंग्रेजी हिंदी के साथ कर रही। लोग मातृभाषा में बातें करना खासकर राजस्थान सरीखे जहां मारवाड़ी में लोग बात किया करते थे। या, बिहार के कई इलाकों में जहां मैथिली, भोजपुरी, मगही में बतियाते थे।

अब अपनी नई पीढ़ी के साथ नहीं बात कर सकते। लगातार हिंदी बोलते लोग क्षेत्रिय भाषाओं से बिल्कुल कटते गए, जा रहे हैं। प्रकृति का भी एक अचल नियम है। जिस काल में जिस पदार्थ, विचारधारा, अभिव्यक्ति की बातें, स्वतंत्रता, किसी दिवस की जरुरत,उसका उद्देश्य, प्रासंगिकता, औचित्य, यर्थाथपरकता की जितनी आवश्यकता है उस काल में उसकी उतनी ही उत्पत्ति होती जाती है। जब तक आवश्यकता तब तक उत्पत्ति। जरुरत घटने लगी साथ ही उत्पत्ति भी घटने लगती है। हिंदी दिवस या इसके उत्थान को ही लीजिए। इसी नियम में उसका भी विकास या नाश हो रहा है।

चाहे इसे डर्विन के श्रेष्ठतम अभ्युत्थान कहें या अर्थशास्त्र का मांग और पूर्ति। प्रकृति से जुड़ी हमारी हिंदी का कारोबार इसी नियम पर अग्रदूत, अगुआ चल-बढ़ने की स्थिति में सामने है। इसमें कतई संदेह नहीं। शेक्सपीयर एलिजाबेथ के समय में ही क्यों हुआ या कालिदास, वाणभट्ट के सदृश विश्वविख्यात महाकवि आज भारत वर्ष में क्यों नहीं होते? उत्तर यही, शायद हमारी जरुरत में इनकी जगह ही अब शेष नहीं। हिंदी में लेखकों की आज कमी नहीं लेकिन अच्छे व मौलिकता का टोटा पूर्ववत बना बूत सरीखे खड़ा है।

विचित्र समाज लेखन ने हिंदी के उपयोगी और मौलिक लेखन की संख्या में वृद्धि जरूर की है लेकिन एक आयात, वर्गीकृत व्यवस्था के सांचें में आधुनिक दृष्टि के बगैर, उत्तर आधुनिकता की बिखंडनवादी विध्वंस से हवाई रोमांस का दर्दनाक मंजर लिए।

हमारी सोच में अमेरिका और इंग्लैंड की गंध है। बगैर यह सोचे-जाने कि वहां के संविधान में कहीं नहीं लिखा, अंग्रेजी हमारी राष्ट्रभाषा है। वहां अंग्रेजी स्वत: राष्ट्रभाषा है। यहां इस देश, अपने हिंदुस्तान में हिंदी को राष्ट्रभाषा नाम से संविधान में जगह दिलानी पड़ी।

हर भाषा व धर्म का संबंध जमीन से जुड़ा होता है। दुनिया में लगभग 80 फीसदी क्रिश्चियन देश हैं। उन सभी देशों की भाषा अंग्रेजी नहीं है। यहां तक, ईसा मसीह ने जिस भाषा में ज्ञान का प्रचार किया वह आर्यमयीक थी। बाद में अंग्रेजी को ईसाईयत से जोड़ दिया गया। आज भी यूरोप के कई देशों की राष्ट्रभाषा अलग है और प्रशासन की भाषा अलग। स्थिति यही, अंग्रेजी दुनिया में ऊंचे पायदान पर है। कल तक अंग्रेजी को सिर्फ अंतरराष्ट्रीय भाषा कहा
जाता था। आज वह ग्लोबल भाषा बन गयी है।

यह भी पढ़ें:  Muzaffarpur News| Gaighat News| गायघाट के हैं, शराब पीने का शौक रखते हैं...तो Mobile से रहिए दूर...

हद यह, भारत दैट इज इंडिया अंग्रेजी का तीसरा सबसे बड़ा गढ़ है। हिंदी आज खुद अपने घर में ही लाचार, हताश, निराश है। स्थिति का बीजारोपण उस समय ही हो गया जब हिंदी अपने चरम पर थी। प्रारंभ में जब देश के प्रधानमंत्री हिंदी प्रदेशों के हुआ करते थे।

उन्होंने संतुलन के नाम पर केंद्र में अहिंदी प्रदेश के लोगों को भी जगह दी, उन्हें महत्व दिया। बाद में जब अहिंदी प्रदेश के प्रधानमंत्री निर्वाचित होने लगे, संतुलन ही याद नहीं रखी। तथाकथित भारतीय विद्वानों ने यह तर्क देते हिंदी को हाशिए पर पहुंचाया कि अंग्रेजों से समानता स्थापित करने के लिए अंग्रेजी पढऩा अनिवार्य है।

यह मानसिकता मौजूदा स्तर पर उग्र मुहाने पर है। प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने प्राथमिक व माध्यमिक शिक्षा की पढ़ाई हिंदी में होने पर जोर देते प्रस्ताव भी लाए, जिसे समर्थन भी मिला। मगर लत ही गलत लग गई। हिंदी वालों की शुरु से अहिंदी वालों को प्रतिष्ठा देने की आदत सी हो गई।

पब्लिक स्कूलों के विस्तारी परंपरा ने पढ़ाई की सारी बेहतर व्यवस्था मातृभाषा की पकड़ से दूर करती चली गयी। विरोध के स्वर कहीं जनमानस में नहीं फूटी, दिखी। परिवर्तन के नाम पर मां की जगह ममा ने ले ली। हमने क्यूबा से भी कुछ सिखने की जरुरत नहीं समझी जहां आज भी अंग्रेजी को प्रथम भाषा बनाने का पुरजोर विरोध जारी है। समय अब भी शेष है। चिंता त्याग कर ही हम आगे हिंदी दिवस की सार्थकता को तरजीह, मुकाम, स्थान पर ला, पहुंचा सकते हैं।

परिभ्रमसि किं मुधा क्वचन चित्त ! विश्राम्यतां
स्वयं भवति यद्यथा भवति तत्तथा नान्यथा।
अतीतमननु स्मनन्नपि च भाव्यसंडकल्पय
न्नतक्ंितसमागभवामि भोगनाहम् ।।

बीती बातों को याद न कर आगे की सुध लेना होगा। कारण, हिंदी को लाचार, अपाहिज बनाने के पीछे खुद हम जिम्मेदार हैं। हमने हिंदी की शुरु से ही उपेक्षा की है। बस होली खेलने की तरह। साल में एकबार जी-भर रंग खेला और साल भर उस रंग के एक छींटे से भी परहेज, बचते रहे।

ए- हिंदी का विरोध अलापने वालों बस इतनी सी गुजारिश, अपनी ये आग लगाने की अदा रहने दे, मेरे हिस्से में भी कुछ ताजा हवा रहने दे…। मनोरंजन ठाकुर के साथ…

ताज़ा खबरें

Editors Note

लेखक या संपादक की लिखित अनुमति के बिना पूर्ण या आंशिक रचनाओं का पुर्नप्रकाशन वर्जित है। लेखक के विचारों के साथ संपादक का सहमत या असहमत होना आवश्यक नहीं। सर्वाधिकार सुरक्षित। देशज टाइम्स में प्रकाशित रचनाओं में विचार लेखक के अपने हैं। देशज टाइम्स टीम का उनसे सहमत होना अनिवार्य नहीं है। कोई शिकायत, सुझाव या प्रतिक्रिया हो तो कृपया deshajtech2020@gmail.com पर लिखें।

- Advertisement -
- Advertisement -
error: कॉपी नहीं, शेयर करें